________________ [ 85 ऐसे आपके चरणों का स्मरण करते हैं // 106 // बहुधात्र सुधारुचिरवचनर्भवता भवतापभरः शमितः / अमितप्रसरद्गुणरत्ननिधे !, शरणं चरणौ तव तेन भजे // 107 // हे अगणित एवं व्यापक गुणरत्नों के आकर जिनेश्वर ! आपने इस संसार में अनेकविध अमृत के समान मधुर वचनों से संसार के तापों के भार को शान्त कर दिया है। इसलिये मैं आपके चरणों की शरण प्राप्त करता हूँ // 107 / / इति प्रथितविक्रमः क्रमनमन्मरुन्मण्डलीकिरीटम रिणदर्पणप्रतिफलन्मुखेन्दुः शुभः / जगज्जनसमाहितप्रणयनककल्पद्रुमो, "यशोविजय" सम्पदं प्रवितनोतु वामाङ्गजः // 108 // इस प्रकार प्रख्यात पराक्रमशाली, चरणों में प्रणाम करनेवाले देव-समूह के मुकुट की मणियों से दर्पण के समान मुखचन्द्र वाले, कल्याण स्वरूप, समस्त प्राणियों को मनोवाञ्छित देने में एकमात्र कल्पवृक्ष रूप, वामादेवी के पुत्र भगवान् पार्श्व जिनेश्वर आपके यश, विजय और सम्पत्ति को बढ़ायें। (यहां श्लेष से कवि ने अपना नाम "यशोविजय" भी अंकित किया है) / / 108 // * -: : * प्रस्तुत स्तोत्र के पद्य 66 से 102 तक द्रुतविलम्बित, 103 में स्रग्धरा, 104 में उपेन्द्रवज्रा, 105 में वियोगिनी, 106 में भुजङ्गप्रयात, 107 में तोटक तथा 108 में पृथ्वी छन्द का प्रयोग हुआ है / तथा यही स्तोत्र 'जनस्तोत्रसन्दोह' के प्रथम भाग में 'श्रीगौड़ीपार्श्वस्तवनम्' के नाम से पृष्ठ 363 में मुद्रित हुआ है। -अनुवादक /