________________ [56 नामक शब्दालंकार के एक विशेष प्रकार का प्रयोग हुया है / पदावृत्ति में दो और तीन वर्गों के पदों की आवृत्ति होने से 'अनेकाक्षरावृत्तिम्लक' शब्दों की कहीं अखण्ड-रूप से और कहीं खण्ड-रूप से श्रावृत्ति होने से 'अव्यपेत-व्यपेत' तथा प्रतिपद्य के प्रथम और द्वितीय चरगा में 'अन्तादिक' और द्वितीय-ततीय चरणों में भी इसी पद्धति का का निर्वाह करते हुए पाँचों पद्यों में क्रमनिर्वाह होने से 'शृखला'. यमक' का यह भेद माना जा सकता है। वैसे यह ‘पञ्चपदी' एक 'शृंखला-बन्ध' और 'शृंखलागर्भ-हारावली-बन्ध' की भी सृष्टि करती है, जिसका चित्रकाव्यशैली में आलेखन होता है। जैन कृतियों में ऐसी यमक पूर्ण रचना प्राकृत में सूयगड, समराइच्च चरिय तथा बप्पभट्टि सूरि कृत चतुर्विंशतिका में दृष्टिगोचर होती है। सम्भवतः पूज्य उपाध्याय जी ने इन्हीं से प्रेरणा प्राप्त की हो ? ___ यमक के अतिरिक्तं छेकानुप्रास की छटा भी स्पृहणीय है। भाषा को प्रवाहशील रखते हुए वर्ण योजना की गई है तथा उपमा, रूपक और अतिशयोक्ति अलङ्कार भी प्रयुक्त हुए हैं। वर्ण्य-विषय में दार्शनिक शब्दावली का समावेश एवं जैनाचार के प्रमुख तत्त्वों का अभिनिवेश स्तोतव्य के प्रति अगाध भक्ति तथा उन के प्राचार के प्रति अपार निष्ठा के परिचायक हैं। स्तोत्रकार श्री उपाध्यायजी ने प्रस्तुत १-यद्यपि इस नाम से किसी पूर्वाचार्य ने यमक भेद प्रस्तुत नहीं किया है, तथापि वामन ने 'काव्यालङ्कार' में यमक की उत्कृष्टता के लिए पदों में किए जानेवाले भङ्ग-पदविच्छेद के प्रकारों में 'शृङ्खला' का लक्षण- अखण्डवर्ण-विन्यासचलनं शृंखलाऽमला' करते हुए स्पष्ट किया है कि-वर्णों के विच्छेद के क्रमश: प्रागे सरकने की प्रक्रिया 'शृङ्खला' कहलाती है। इसके अनुसार ही यहाँ वर्गों के स्थान पर शब्दों अथवा पदों का एक विशिष्ट क्रम से यमन होने से यह नाम दिया गया है / वैसे यह सन्दष्टक, चक्रवाल, चक्रक आदि भेदों का एक सूक्ष्म भेद है /