________________ [73 स्पष्ट करता है कि 'यह स्तोत्र नये-नये तर्कों के प्रयोग से आश्चर्यकारी और सर्वोत्तम है। इसके अध्ययन से तर्कशास्त्र के बड़े-बड़े ग्रन्थों का श्रमपूर्वक अध्ययन करने से प्राप्त होनेवाला ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है / वस्तुतः यह उक्ति पूर्णतया सत्य एवं तथ्यसंवलित है। ऐसे शास्त्रगर्भ स्तव पर स्वयं रचयिता ने 'स्वोपज्ञटीका' लिखी है। इस टीका में 'अस्पृशद्गतिवाद' नामक अपनी कृति का उल्लेख भी हुअा है। इसका प्रकाशन 'मनसुखलाल भगुभाई' द्वारा अहमदाबाद से 'न्यायखण्डखाद्यापरनाम-महावीर-प्रकरणम्' नाम से हया है। __इस पर द्वितीय विवृति 'न्यायप्रभा' नाम से तीर्थोद्धारक श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी ने की है। इसका प्रकाशन सन् 1928 में श्रीमारणेकलाल मनसुखलाल ने किया है / विवृति पर्याप्त विस्तृत एवं प्रौढपाण्डित्य से परिपूर्ण है। ___एक अन्य विवृति 'कल्पकलिका' नामक श्रीविजयनेमिसूरि के शिष्य श्रीविजयदर्शनसूरि ने की है। इसके दोनों खण्डों में दो-दो विभाग हैं जिनमें प्रथम विभाग 'सौत्रान्तिक मत निरूपण' २२वें श्लोक तक, द्वितीय विभाग में 'प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्षत्व स्वीकार', 23 से 243 श्लोक तक, तृतीय विभाग में 'विज्ञानवादि-मत-खण्डन' 35 से ५१वें श्लोक तक तथा चतुर्थ विभाग में 'स्याद्वादोपदेश-दिग्दर्शन' 52 से ११०वें श्लोक तक का समावेश है। .. इसका श्लोकार्थ एवं भावार्थ श्रीजीवराजभाई प्रोधवजी दोशी ने भी किया है जो 'जैनधर्मप्रकाशक' में 6 अंकों में प्रकाशित हुआ है / (10) समाधिसाम्यद्वात्रिशिका जैन स्तुति-साहित्य में द्वात्रिंशिकाओं की सर्वप्रथम रचना श्रीसिद्धसेन दिवाकर ने की है। इन्होंने द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकाओं की रचना की है किन्तु अभी तक इक्कीस द्वात्रिंशिकाएँ ही प्राप्त हुई हैं जिनमें अधिकांश महावीर स्वामी की स्तुति है / इसी परम्परा से श्रीयशोविजयजी