________________ .. 80 ] की समानता को प्राप्त नहीं हो रहे हैं क्या ? // 66 / / प्रयागेऽस्मिन् विश्वे प्रसरति भवत्कोतिरनिशं,, रसंस्तुङ्गा गङ्गा गिरिशगिरिशीतांशुविशदा। परेषां निःशेषा जिनवर ! कुकीर्तिश्च यमुना, घनाम्भोदश्यामा ननु महसहस्रापतदिह / / 67 // हे जिनेश्वर ! प्रयागरूप इस विश्व में कैलाश एवं चन्द्रमा के समान निर्मल जल से परिपूर्ण गङ्गारूप आपकी कीर्ति सदा व्याप्त हो रही है। और अन्य देवों की समस्त कुकीर्ति घने मेघ के समान काली यमुना ऐसी लगती है मानो उसके बहाने हजारों भैंसे उसमें गिर रहें हैं / / 67 // [यहाँ 68 से 63 तक 26 श्लोक प्राप्त नहीं हुए / ] कथा का ते ख्यातेः कृत-विपुलसातेश्वर ! भवत्प्रभावादन्येषामपि भवति / नो कूटघटना। न कः प्राणी वाणीरसहृतजगन्मानसतृषं, श्रयेत त्वां नाथं दलितधनमायामृषमतः॥१४॥ हे परमानन्ददाता जिनेश्वर ! आपकी प्रसिद्धि की बात क्या कही जाय ? आपके प्रभाव से तो अन्य देवों के कूट-छल-छद्म की रचना नहीं हो पाती है, इसलिये कौन ऐसा प्राणी है, जो अपनी वाणी के रस से जगज्जनों के मानस की प्यास को हरनेवाले तथा विस्तृत माया एवं मिथ्यात्व का नाश करनेवाले आपके समान स्वामी का प्राश्रय न ले?॥ 14 // भवान् चक्री कर्मवजविकटवेताळ्यघटितं, कपाट ग्रन्थ्याख्यं सुपरिणतिदण्डाद् विघटयन् / /