________________ - 44 ] ___ हे जिनेश्वर ! चन्द्रमा के लाञ्छनरूप पंक को धोनेवाला प्रापका जो यश जगत् को पूर्णिमा के समान पूर्ण प्रकाशमय बनाता है, यह इस चन्द्रमा के प्रति पक्षपात है अथवा द्वेष है ? इसका कैसे विवेचन किया जाए ? // 64 // स्वल्पानुरागेव जडं शशाङ्क, मास्येकवारं भजते नु राका। निरन्तरं प्रेमिण निमज्जतीयं, भवद्यशोभिस्तु सहेन्द्रगेयैः // 65 // ___हे देव ! वह राका-पूर्णिमा तो अल्प अनुरागवाली स्त्री की तरह जड़ चन्द्रमा का महीने में एक बार ही सेवन करती है किन्तु इन्द्र से गाने योग्य आपके यश के साथ तो यह राका सदा प्रेम में डूबी ही रहती है / 65 // भवद्यशोभिः सह लक्ष्मदम्भात्, स्पों दधानः , सुपरीक्षकेण। करेण चन्द्रः कलिकालक्लप्ति-कालेन धात्रा गलहस्तितः किम् // 66 // - हे देव ! उत्तम परीक्षक विधाता ने अपने लाञ्छन के अभिमान से आपके यश के साथ स्पर्धा करने वाले चन्द्रमा को अपने कलिकालयुक्त कालरूपी हाथ से अर्थात् झगड़ालू हाथ से गलहस्तित कर दिया है क्या गले में हाथ डाल कर बाहर धकेल दिया है क्या ? // 66 // ब्रह्मा किल ब्रह्ममयं तनोति, यशश्च विश्वं तव देव ! शुभ्रम् / मध्ये नु राजा तदिह द्विजानां, ब्रह्माद्वयं वा शितिमाद्वयं वा // 67 // ' हे देव ! ब्रह्मा इस संसार को ब्रह्ममय अर्थात् रजोरूप बनाता है और आपका यश उसे श्वेत बनाता है / किन्तु इन दोनों के बीच द्विजराज चन्द्रमा एक मात्र ब्रह्म को अथवा शुक्ल कृष्ण पक्षरूप दो शितिमाओं की रचना करता है / / 67 //