________________ [ 46 यहाँ तो आपके गुण में वृद्धि होती है / 82 // तारापदैस्ते सुगुणप्रशस्तेर्यस्याः सिसृक्षा नभसः सितस्य / सेयं विधातुः कतमा समीक्षा, भिक्षाचरी भूतवती मनीषा // 3 // हे जिनेश्वर ! आपके उत्तम गुणों की प्रशस्ति के लिये श्वेत प्रकाश के तारागणों के आधार पर सर्जन करने की जो इच्छा है वह विधाता की प्रेत लगी हुई भिखारिन के समान कौन सी समीक्षा बुद्धि है ? अर्थात् उस विधाता की बुद्धि प्रेत लगी हुई होने से विवेकशून्य, दर दर भटकने के कारण भिखारिन और असम्भव कार्य को सम्भव बनाने की प्रवृत्ति के कारण समीक्षा दृष्टि का अभाव व्यक्त करती है अथवा उसकी समीक्षा बुद्धि भिखमंगी हो गई है / 83 // स्वनिग्रहानुग्रहतः स्वभक्तं, परे परं धातुमधीशतां ते। मामेव मां कर्तुमलम्भविष्णुस्त्वमेव देवः कुशलानि कुर्याः // 84 // हे जिनेश्वर ! दूसरे देव अपने निग्रह और अनुग्रह से अपने भक्त का हित करने में समर्थ हों, तो हों, किन्तु मुझे तो मेरे समान-अर्थात् जैसे मैं (आपका भक्त) हूँ वैसा बनाने में आप ही समर्थ देव हैं / इस लिये आप ही मेरा कल्याण करें / / 84 // धृत्वा नयं निश्चयमभ्युपेयस्त्वां नाम नैवेत्यहमाप्तमुख्य ! / वर्ते तथापि व्यवहारवर्ती, त्वत्किङ्करस्त्वत्स्पृहयालुरेव // 85 // हे प्राप्त मुख्य जिनेश्वर ! यद्यपि निश्चय-नय को लेकर मैं आपके निकट पहुँचने के योग्य नहीं हूँ, तथापि व्यवहार नय से आपकी इच्छा रखनेवाला आपका किड़कर-सेवक तो है ही / / 85 // विद्याविदो देव ! तवैव सेवां, मुख्यं महानन्दपदं वदन्ति। इदं पदस्य क्वचिदन्यदर्थे, निरूढया लक्षणया प्रयोगः // 86 //