________________ मुखेन्दुज्योत्स्नेव स्फुटतनुलसत्कान्तियमुनाप्रशंसा हंसाली किमु किमुत पुद्धिरखिला ? / स्मितश्रीः किं लक्ष्म्याः किमुत परमध्यानघटना ? प्रभो ! त्वन्मौलिस्था विलसति सिता "चामरततिः" // 37 // हे प्रभो ! आपके सिर पर विराजमान जो श्वेत चामर-पंक्ति शोभित हो रही है, वह मानो आपके मुखरूपी चन्द्रमा की चाँदनी है अथवा स्पष्टरूप से शरीर में शोभित होती हुई कान्तिरूप यमुना में प्रशस्त हंस की श्रेणी है क्या ? किं वा आपकी सारी पुण्यों की ऋद्धि तो नहीं है ? अथवा लक्ष्मी की मुसकराहट की शोभा है ? अथवा यह आपके आत्मध्यान की रचना तो नहीं है ? / / 37 ! / न कि देवाः सेवां विदधति "मृगेन्द्रासन"-जुषस्तव प्रौढाम्भोदप्रतिम-वपुषः पुण्यजनुषः / प्रदेशे स्वर्णाद्रः. क्वचन रुचिरे नन्दनवने, प्रियङ्गोः सङ्गोत्काः किमु न सततं षट्पदगरणाः // 38 // हे जिनेश्वर ! देवतालोग प्रतिभाशाली, मेघ के समान शरीरवाले, पुण्यजन्मा और सिंहासन पर विराजमान सुमेरु के प्रदेश के कहीं सुन्दर नन्दनवन में आपकी सेवा नहीं करते हैं क्या ? क्योंकि प्रियंगु वृक्ष के संग के लिए भँवरे सदा ही क्या उत्सुक नहीं रहते हैं ? // 38 // प्रभून्नेन्दुभं यः प्रभविभुमुखीभूय न सुखी, तमोग्रासोल्लासस्तदिह ननु मय्येव पतितः / इदं मत्वा सत्त्वात् किमु तव रविर्मोलिमधुना, श्रितो नेतश्चेतःसुखजनन-“भामण्डल''-मिषात् // 39 //