________________ 30 ] . तीर्थेश ! वाणी तव सप्तमार्गा गङ्गां त्रिमार्गामतिशेत एव / विहाय तीर्थ परमं तदेनामन्यां भजन्ते न कथं त्रपन्ते // 18 // हे तीर्थङ्कर ! सात मार्गों में जानेवाली (सप्तभंगीरूप) आपकी वाणी त्रिपथगामिनी गङ्गा का अतिक्रमण करती ही है, अतः आपकी वाणीरूप इस परमतीर्थ को छोड़कर अन्य तीर्थों का सेवन करनेवाले क्यों नहीं लजाते हैं ? // 18 // प्रभो ! परेषां त्वयि मोहभाजां, यो नाम योग्यानुपलम्भदम्भः। अर्थे समस्तेऽपि बिभर्तुं मौनं, स देशकालव्यवधानभाजि // 16 // हे जिनेश्वर ! आपके विषय में दूसरे अज्ञानियों का जो 'योग्य को प्राप्त नहीं करने का दम्भ है, वह समस्त अर्थ के रहने पर भी देशकाल में व्यवधान-रुकावट को धारण करनेवाले इस विषय में मौन धारण करे // 16 // अपह नुवन्ते नितमां भवन्तं, जाति येषां दृगयोग्यतोच्चैः। स्वनेत्रपन्थानमनाप्नुवन्तस्तेषामयोग्याः स्वपितामहाद्याः // 20 // हे जिनेश्वर ! जिन व्यक्तियों में आँखों के रहते हुए भी वस्तुतत्त्व को देखने की शक्ति नहीं हैं, वे ही आपको पूर्णरूपेण नहीं मानते हैं, किन्तु उनकी आँखों के सामने उनके पितामह-दादा आदि के न रहने से क्या वे भी अयोग्य नहीं ठहरते हैं ? // 20 // नखेषु चन्द्रेषु वितेनिरे यस्तारासमालिङ्गनकौतुकानि / त्वत्पादयोर्देव ! नमोऽस्तु तेभ्यः सुरेन्द्रचिन्तामणिचुम्बितेभ्यः // 21 // - हे जिनेश्वर ! आपके नखरूप चन्द्रमानों में ताराओं के समान आलिङ्गन कौतुक किये हैं ऐसे इन्द्र के (मुकुट में स्थित) चिन्तामणि