________________ [ 37 यदि धर्म और धर्मी में एकान्तभेद माना जाए तो वस्तु केवल सत् ही होगी अथवा असत् ही होगी। सत् और एकान्तवाद मानने पर समस्त जगत् एक वस्तुरूप हो जाएगा अथवा असत् रूप हो जाएगा। परन्तु संसार न तो एक वस्तुरूप है और न असद्रूप है / अतः अनेक रूप वाले इस संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिये - हे देव ! आपके शासन का प्राश्रय लेना ही चाहिये / / 43 / / परेण रूपेण भजत्यजन, स्वरूपतोऽस्तित्वमनस्तिभावम् / अनस्तिभावः पुनरस्ति भावं, परोपनीतः स्वचतुष्टयेन // 44 // पदार्थ का स्व-रूप से अस्तित्व है, पर-रूप से वह अभावरूप हो जाता है और जो वस्तु का अभावरूप है वही स्वद्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से भावरूप को प्राप्त हो जाता है / 44 / / विना भवन्तं स्थितिहेतुमन्यं, विश्वस्य या धावति देवमाप्तुम् / जागति वन्ध्या तनयस्य मौलिमलङ्करिष्णुः कतमा कलेयम् // 45 // हे जिनेश्वर ! जो कला-विद्या अथवा शास्त्र आपके बिना संसार की स्थिति के कारण अन्य देव को प्राप्त करने के लिये दौड़ती है वह वन्ध्या के पुत्र के मस्तक को शोभित करनेवाली कौन-सी कला जाग रही है ? // 45 // जनुभृतां दुर्नयनाशितानां, सञ्जीवनी नाम तवैव वाणी। उपेत्य मच्चेतसि सा समस्त-रुजां विनाशे पटिमानमेतु // 46 // .. हे जिनेश्वर ! दुर्नय से नाश को प्राप्त प्राणियों को आपकी ही वाणी अच्छी तरह जीवन देनेवाली है, वह आपकी वाणी मेरे हृदय में आकर समस्त रोगों को नष्ट करने में पटुता धारण करे / / 46 /