________________ [ 27 प्राप्त कर लेने पर, पत्थरों से मार खाया हा तथा नश्वर विशाल करीर (पत्र रहित वृक्ष) के समान कुदेव किस तरह सेवन के योग्य है ? (यहाँ कल्पवृक्ष और भगवान् दोनों ही अभीष्ट को देने वाले हैं किन्तु कल्पवृक्ष जड़ है और भगवान् चेतन है, इसलिये भगवान् को अपूर्व कल्पवृक्ष कहा गया है) // 7 // अन्विष्यमाणं तु हितानुरूपं, देवेषु रूपं त्वयि पर्यवस्यत् / कुतूहलं भानुमतः सभाया, ग्रहस्य किञ्चित् कलयाम्बभूव // 8 // जिस प्रकार अन्य ग्रहों की सभा में सूर्य का रूप कुछ कुतूहलवर्धक माना गया। उसी प्रकार हे देव ! सभी देवों में किस देव का रूप हितकारी है ? इस बात की खोज करने पर आपमें ही वह रूप मिल पाया / / 8 // . कि कालकूटाशिनि शूलपारणौ, सजन्ति देवत्वधिया न मूढाः / वयं तु सद्वोधसुधां लिहन्तं, त्वामेव देवं विनिभालयामः // 6 / / हे जिनेश्वर ! क्या मूह लोग विषपान करनेवाले शिव में देवत्व बुद्धि से अनुराग नहीं करते हैं ? किन्तु हम तो सद्बोधरूपी अमृत का आस्वादन करनेवाले आपको ही देव विशेष के रूप में देखते हैं / / 6 / / इच्छावशं चेद् भुवनं भवस्य, तिष्ठेत् सदा वा निपतेत सदा वा / नेच्छावशं चेद् भुवनं भवस्य, कर्मप्रकृत्यैव तदा सदाशम् / / 10 / / यदि भव ईश्वर की इच्छा के अधीन ही संसार है अर्थात् ईश्वर ही जगत्कर्ता है तो संसार को सदा स्थिर रहना चाहिए। और यदि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है तो जगत् को सदा अस्थिर रहना चाहिए किन्तु वस्तुतः वह ऐसा नहीं है। अतः कर्मस्वभाव से ही संसार है . (यही मत) उचित है / / 10 / /