________________ 20 ] हे देव ! सत्यमार्ग की परीक्षा अब कथानों से शिथिल होकर परीक्षकों के हृदय में जा छिपी है / इसीलिये कुत्सित पक्ष के प्रति दुराग्रहवाले इस कलियुग में अपने सेवकों के शरण आप ही हैं // 16 // प्रौदास्यभागेव तुलां दधाने, खद्योतपोते द्युतिमालिनो या। कलौ गलबुद्धिपरीक्षकारणां, तां चातुरी देव ! वयं न विद्मः // 17 // हे देव ! जो बुद्धिमत्ता सूर्य की तुलना को धारण करनेवाले छोटेसे जुगनू में उदासीनता को धारण करती है, कलियुग में ऐसे नष्टबुद्धिवाले परीक्षकों की उस बुद्धिमानी को हम नहीं जानते अर्थात् इस प्रकार का विचार ही मूर्खतापूर्ण है // 17 // कवेः सभायां कुपरीक्षकारणामधिक्रियापि स्फुटधिक्रियेव / बकस्य पङ्क्तौ वसतो न किं स्याद् मरालबालस्य महोपहासः // 18 // हे देव ! कुपरीक्षकों की सभा में कवि का अधिकार (सम्बन्ध) भी स्पष्ट धिक्कार ही है, क्योंकि बगलों की पंक्ति में रहनेवाले बालहंस का भी क्या बड़ा उपहास नहीं होता ? // 18 // .. कण्ठीरवा एव कुपन्थिनागे, भवत्प्रसादाद्वयमुद्धताः स्मः। . स्याद्वादमुद्रारहिताः कुतीर्थ्याः, शृगालबाला इव नाद्रियन्ते // 16 // हे देव ! आपकी कृपा से हम कुमार्गगामी हाथी के विषय में उद्धत सिंह ही हैं, इसीलिये स्याद्वाद की मुद्रा से रहित गीदड़ों के बच्चे जैसे कुतीर्थी लोग हमारा आदर नहीं करते हैं // 16 // याचामहे देव ! तवैव भूयः, कृपाकटाक्षेण कृतार्थभावम् / जरानिहन्ता किल यादवानां, दासं दृशैनं प्रविलोकयस्व // 20 // हे देव ! हम पुनः आपके ही कृपा-कटाक्ष से कृतकृत्यता की याचना