________________ 62 ] प्रस्तुत करता है। द्वितीय पद्य में जहां 'कालिदास के 'क्व सूर्यप्रभवो वंशः ?' इत्यादि को पद्धति से अपनी असमर्थता व्यक्त की है, वहीं स्वर्गीय वृक्ष के पुष्पों की प्राप्ति के समान दुःशक्य गुणवर्णनों की महत्ता प्रदर्शित कर 'निदर्शना' अलङ्कार को उदाहृत किया है / विश्वविश्वविभुता, खलता ख-लता, शुभवता भवता जैसे अनेक यमकित पदों के अतिरिक्त छठे और सोलहवें पद्य में 'अपह नुति', 12, 13 और १५वें में श्लेष, आठवें में 'अनन्वय' अलङ्कार वस्तुतः हृदयग्राही हैं / श्लेष के माध्यम से क्रमशः विष्णु, सूर्य और पृथ्वी से समानता एवं कतिपय गुणों में उनसे भी अधिक गुणशाली बताकर 'व्यतिरेक' अलकार को भी व्यक्त किया है / १६वें पद्य में 'प्रतापरूपी डण्डे से चलाए गए चाक से महाकुम्भरूप सूर्य की सृष्टि' बड़ी ही मनोरम कल्पना है जो रूपकों पर आधारित है। न्यायशास्त्र के महान् विद्वान् होने के कारण उपाध्यायजी कूलाल, चक्र, घट जैसी ,वस्तुओं को काव्य में लाना कैसे भूल सकते थे ? उनकी तर्कशैली अद्भुत है / 'अयं दान. कालस्त्वहं दानपात्रं भवान्नाथ ! दाता त्वदन्यं न याचे' जैसी प्रसिद्ध पंक्तियों को अपना कर उपाध्यायजी ने प्रभु को कल्पवृक्ष एवं स्वयं को दानपात्र' बताया है / (पद्य 19) / अन्त में मोक्षलक्ष्मी की कामना करते हुए अपने द्वारा की गई स्तुति की पूर्णता चाही है। . ___ स्तोत्र के प्रारम्भ में ही पार्वजिनेश्वर की भक्ति से अपने मन की उज्ज्वलता का ‘भक्तिभासुरमना' पद से उल्लेख करते हुए स्तुति की प्रवृत्ति का सूचन किया है। अनन्तगुणशाली की गुणगणना में असमथता, एकान्तवाद का खण्डन, तर्क द्वारा अन्य देवों की समानतासिद्धि के प्रयास की तुच्छता, सप्तभङ्गी नय का संकेत, श्रीपार्श्वप्रभु द्वारा कामदेव का तिरस्कार, भगवान् की भक्तों के प्रति कोमलहृदयता, शुद्धनिश्चयनय द्वारा ज्ञेयता, पापनिवारकता, मोक्षदायकता, क्षमाभाव, प्रथितकीर्तिशालिता आदि का मनोरम वर्णन स्तोत्र की विशिष्टता को सिद्ध करते हैं।