________________ 56 ] (1) पूज्य उपाध्यायजी की संसारी माता ने गुरु के समक्ष यह नियम लिया था, कि प्रतिदिन 'भक्ताभर-स्तोत्र' सुनने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करना। इस नियम का वे यथाविधि पालन करती थीं किन्तु वर्षा के दिनों में एक दिन बड़ी तेजी से वर्षा हुई, जो रुकती ही नहीं थी। बहुत समय बीत गया। वे रसोई नहीं बना रही थीं। तब भूख से व्याकुल 'जसवन्त' से नहीं रहा गया। उसने माता से पूछाआज भोजन क्यों नहीं बना रही हैं ?' माता ने अपनी स्थिति स्पष्ट की तब बालक ने कहा कि 'मैं अपिके साथ प्रतिदिन उपाश्रय में आता हूँ और गुरुदेव के मुख से जो स्तोत्र आप सुनती हैं उसे मैं भी सुनता हूँ, वह मुझे पूरा कण्ठस्थ है, अतः आप आज्ञा दें, तो मैं सुना दूं?' माता यह सुनकर प्रसन्न हुई तथा स्तोत्र सुनकर शेष कार्य पूर्ण किया। (2) काशी में अध्ययनार्थ निवास करके पू० उपाध्यायजी महाराज ने न्यायशास्त्र के सभी ग्रन्थों का विधिवत् अध्ययन कर लिया था किन्तु एक ग्रन्थ शेष रह गया था, जो सात हजार श्लोक-प्रमाण का था, उसे अध्यापक-महोदय अपने गौरव के क्षीण हो जाने के भय से नहीं देते थे। तब किसी तरह केवल देखने के लिए गुरुजी को प्रसन्न कर ग्रन्थ प्राप्त कर लिया और एक ही रात्रि में आपने चार हजार श्लोकप्रमाण तथा आपके अन्य साथी श्री विनयविजय जी उपाध्याय ने शेष तीन हजार श्लोकप्रमाण विषय को कण्ठस्थ कर लिया और प्रातः वह ग्रन्थ यथावत् लौटा दिया।' ___ इन किंवदन्तियों से आपकी असाधारण अवधारण-शक्ति का परिचय अभिव्यक्त होता है। ऐसी उत्कृष्ट स्मृति-शक्ति के कारण ही तो इतनी अधिक रचनाएँ करने में आप समर्थ हुए। १-जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावमा पृ० 61