________________ [ 41 चार्यादि ने तथा उत्तरमीमांसा के देवताधिकरण सू. 1-3-26 में भाष्यकार एवं भाष्य-विवरणकार आचार्यों ने स्तुति शब्द की व्याख्या में सिद्धान्त निश्चित किया है कि "गुण यदि असत् हों, तो स्तुतित्व ही नष्ट हो जाए अथवा मिथ्यागुण कहने से प्ररोचना भी नहीं हो सकती है / अतः अर्थवाद कर्म के प्ररोचक अर्थवाद गुणों की विद्यमानता को ही व्यक्त करते हैं।" क्योंकि उत्कर्षाधायक गुणों का वर्णन ही स्तुति होने से गुण न हों और मिथ्याकथन किया जाए तो वह एक प्रकार से प्रतारणा ही कही जाएगी।' अतः ईश्वर के गुणों का कीर्तन ही भगवत्स्तुति कही जा सकती है। 'स्तुतिविद्या' के रचयिता श्रीसमन्तभद्राचार्य ने स्तुति करने का मुख्य हेतु 'पागसां जये' अर्थात् अपराधों पर विजय प्राप्त करना माना है। अन्य विद्वान् स्तोत्र की परिभाषा करते हए कहते हैं कि-'प्रतिगीतमन्त्रसाध्यं स्तोत्रम्, छन्दोबद्धस्वरूपं गुणकीर्तनं वा' अर्थात् प्रत्येक गीत-पद्य में जो मन्त्र-विचारणा प्रस्तुत होती है, वह स्तोत्र है अथवा छन्दोबद्ध रूप में जो गूणकीतन किया जाता है, वह स्तोत्र है। विष्णुसहस्रनाम तथा ललितासहस्रनाम आदि में तो देवताओं के नाम ही स्तुति-स्तोत्र गिनाए हैं। इसी प्रकार अग्निपुराण में अलङ्कारों की शृङ्खला में 'स्तुति' को एक स्वतन्त्र अलङ्कार ही माना है। इस प्रकार स्तोत्र की परिभाषाएँ भी अनेक रूप में प्राप्त होती हैं किन्तु इन सब में-'भगवत्तोष एव सर्वत्र कारणं तस्य च साधनं भगवत्स्तुतिरेव'-सर्वत्र भगवत्-सन्तुष्टि ही कारण है और उसका उपाय एकमात्र भगवत्स्तुति ही है। इसी लिए कहा गया है कि 1. गुणकथनं हि स्तुतित्वं गुणानामसद्भावे स्तुतित्वमेव हीयेत / न चासता गुणेन कथनेन प्ररोचना जायते / अतः कर्म प्ररोचयन्तो गुणसद्भावं बोधयन्त्येवार्थवादाः / शास्त्रमुक्तावली पू० मी० 1-2-7 / तथा--स्तुतेरुत्कर्षाधायकगुणवर्णनरूपत्वेन गुणाभावेऽसत्कथनं प्रतारकता सम्पादयेत् / (अरणभाष्य प्रकाश 1-3-26)