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भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा : ३ स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन्होंने आत्मा को सुखाद्याश्रय तथा इन्द्रिय अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार किया है। इनके अनुसार ज्ञानादि नौ विशेष गुण (ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ) आत्मा के आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। ज्ञानादि आत्मा का स्वभाव नहीं, इसीलिए जब आत्मा को मोक्ष होता है तब उसमें ज्ञानादि गुणों का अभाव हो जाता है । ज्ञान के अभाव में आत्मा जड़ हो जाता है । इसीलिए लोग इस तरह की मुक्ति की अपेक्षा वृन्दावन के जंगल में सियार बनना ज्यादा पसन्द करते हैं । सांसारिक अवस्था में आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता और कर्त्ता भी है। यह नित्य है, व्यापक है, अमूर्त है और निष्क्रिय भी है। व्यापक होने पर भी ज्ञान- सुखादि का अनुभव स्वयं नहीं करता अपितु अणुरूप मन की सहायता से करता है । मन प्रत्येक शरीर में भिन्न है, क्रियावान् होने से मूर्त तथा अणु है । अतः आत्मा व्यापक होकर भी शरीर में ही ज्ञान- सुखादि का अनुभव करता है, बाहर नहीं। आत्मा प्रतिशरीर में होने से अनेक हैं। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है। केवल ईश्वर का ज्ञान नित्य है, वह सर्वज्ञ है, व्यापक है, सृष्टिकर्ता है और सर्वशक्तिमान् भी है । कुछ ईश्वर को सशरीरी और कुछ अशरीरी मानते हैं। 'आत्मत्व' जाति ईश्वर और जीवात्मा दोनों में है। जीवात्मा बद्ध है और ईश्वर सदा मुक्त। मुक्तावस्था में ज्ञान - सुखादि का अभाव हो जाने से वह पाषाणवत् हो जाता है । शरीर को आत्मा समझना मिथ्या ज्ञान है और मिथ्याज्ञान से राग-द्वेष, पाप-पुण्य, जन्म-मरण तथा दुःख रूप संसार - परिभ्रमण होता है। मिथ्याज्ञान के नष्ट होने पर राग-द्वेष नष्ट हो जाता है। तदनन्तर पाप-पुण्य की प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है। प्रवृत्ति के अभाव में जन्म का अभाव हो जाता है और जन्म का अभाव होने पर दुःख का अभाव हो जाता है। ज्ञान की सत्ता देश और काल में भी मानी गई है परन्तु वहाँ ज्ञान की सत्ता क्रमशः दैशिक और कालिक सम्बन्ध से है, समवाय सम्बन्ध से नहीं। इसी से देश और काल के साथ आत्मा का पार्थक्य प्रकट होता है। प्रारब्ध कर्मों के उपभोग के बिना पूर्ण मुक्ति सम्भव नहीं है। ये जीवन- मुक्ति (अपर-नि:श्रेयस् ) और विदेह मुक्ति (पर-नि:श्रेयस् ) दोनों मानते हैं। इस तरह इनकी आत्मा ज्ञानाश्रय होकर भी ज्ञान स्वरूप नहीं है । चार्वाक और बौद्धों के चिन्तन की अपेक्षा इनका आत्म तत्त्व, जड़ तत्त्व से कुछ पृथक् है।
४. सांख्य- योग
सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि हैं तथा योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि | सांख्य को निरीश्वरवादी और योग को ईश्वरवादी कहा जाता है। दोनों ही प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों की सत्ता को स्वीकार करते हैं। योग दर्शन में ईश्वर को क्लेश, कर्म