Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 47
________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ शक्ति विरोधाभास से रहित है, निरपेक्ष है उसे गुण कहते हैं, जैसे- आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख आदि; पुद्गल में रूप, रस गन्ध आदि। वस्तु में गुण तो सीमित हैं किन्तु धर्म अनन्त हैं। वस्तु के स्वरूप को देखने के लिए उसके निज गुणों के साथ अन्य वस्तुओं से उसमें भिन्नता भी देखनी पड़ती है। वस्तु का स्वरूप और उसके गुण नित्य हैं, परन्तु पर्याय बदलते रहते हैं। पर्याय का तात्पर्य है वस्तु में होने वाले परिवर्तन का आधार। किसी भी वस्तु में परिणाम होते हैं तो द्रव्य की और उसके स्वरूप की स्थिति वही रहती है। ये आन्तरिक तत्त्व हैं। परिणाम वस्तु की बाह्य स्थिति में परिवर्तन लाते हैं। ये बाह्य रूप ही बदलते रहते हैं। वस्तु के जीवन में आने वाले ये परिणाम अनादिकाल से होते चले आ रहे हैं और अनन्त काल तक चलते रहेंगे। पर्याय की दृष्टि से भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने गुण और पर्याय को अलग माना है, जबकि आचार्य सिद्धसेन का मत है कि गुण और पर्याय सामान्य वस्तु के पारिभाषिक पर्याय हैं। पर्याय और गुण शब्द तुल्यार्थक हैं, अत: गुण और पर्याय एक हैं। यहाँ गुण से तात्पर्य है युगपद्भाविपर्याय और पर्याय का अर्थ है एक साथ उत्पन्न नहीं होने वाले पर्याय'। इनकी दृष्टि में यद्यपि गुण और पर्याय कथंचित् अभिन्न हैं तथापि संज्ञा, संख्या, स्वरूप और अर्थक्रिया के भेद से उनमें कथंचित् भेद भी है। दोनों के नाम भिन्न हैं, गुण सीमित होते हैं और पर्याय अनन्त हैं, अत: दोनों में संख्याकृत भेद भी हैं। गुण युगपत्कालभावि हैं और पर्याय अयुगपत्कालभावि हैं। गुण द्रव्य के सहभावि धर्म हैं और पर्याय द्रव्य के कालभावि धर्म हैं, अत स्वरूपतः भी दोनों भिन्न हैं। अत दोनों में कथंचित् भिन्नता भी है। आचार्य समन्तभद्र का मत है कि प्रत्येक द्रव्य पर्यायों को रखता है, पर्यायें बिना द्रव्य के नहीं होती। तब यह बात स्वत: सिद्ध है कि द्रव्य अनेक पर्यायों को रखने से अनेक स्वरूप हैं। हम यदि द्रव्य को माने और पर्याय को न मानें, अथवा पर्याय को मानें और द्रव्य को न मानें तो दोनों ही नहीं रहेंगे। इसलिए एक को न मानने से कोई भी नहीं ठहर सकता है। जब कोई तत्त्व ही नहीं रहेगा तो उसका कथन भी असम्भव होगा। केवल द्रव्य ही वस्तु नहीं है, वरन् वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। जैसे समुद्र का एक देश समुद्र भी नहीं है और असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता। पूरे समुद्र को ही समुद्र कहा जा सकता है। द्रव्य-पर्याय के आधार पर वस्तु की नित्यानित्यता वस्तु को एकान्तनित्य मानने पर उसमें विकार या परिणाम नहीं हो सकेंगे। विकार नहीं होने से कारक का व्यापार वहाँ नहीं होगा। कारक का व्यापार नहीं होने से

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