________________
जैन दर्शन में इच्छा-स्वातन्त्र्य की समस्या : ६५ भी एक प्रकार का नियतिवाद है जो मानवीय प्रयास को पंगु बना देता है। यह नैतिकता की प्रासङ्गिकता के विपरीत है।
वस्तुत: यह समझ कारणता के नियम तथा विवशता की अवधारणा को परस्पर गड्डमड्ड करने से उत्पन्न हुई है। इसलिये कुछ विज्ञों ने इसे "छद्म समस्या" अथवा “मिथ्या समस्या" (Pseudo-problem) कहा है।४२
___ उन विद्वानों का कहना है ‘इच्छा-स्वातन्त्र्य तथा नियतता' का यह समस्त तथा कथित विवाद वस्तुत: पदार्थों को गलत तरीके से समझने के कारण है। वे दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि वास्तविक विरोध स्वतन्त्रता तथा नियतता में नहीं अपितु स्वतन्त्रता तथा बाध्यता में है। वे तर्क करते हैं कि यदि कोई नियमों की भूमिका (role) तथा विज्ञान के अनुसार कारण की अवधारणा को समझ ले तो वह तुरन्त इस बात को समझ जायेगा कि वस्तुत: कारणता के नियम की उपस्थिति तथा स्वतन्त्रता में परस्पर कोई असंगति नहीं है।४
कुछ विज्ञजनों का मानना है कि यदि कोई व्यक्ति वास्तव में जानना चाहता है कि मानव स्वतन्त्र है अथवा किन्हीं परिस्थितियों में बाध्य या विवश है तो इस प्रक्रिया में उसे पहले कारण की अवधारणा तथा सिद्धान्तों को अवश्य समझ लेना चाहिये।
___ जब किसी विशेष प्रकार की घटना के घटित होने के पश्चात् दूसरी घटना घटित होती पाई जाये तथा ऐसा अनेक बार हो तो प्रयोगों, परीक्षणों एवं निरीक्षणों द्वारा उन दो घटनाओं में पारस्परिक सम्बन्ध मान लिया जाता है। इसी को कारण-कार्य भाव कहा जाता है। यह कारण-कार्य भाव दो घटनाओं अथवा वस्तुओं का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है जो साहचर्य के नियम पर आधारित होता है अर्थात् एक के होने पर दूसरा होता है तथा न होने पर नहीं होता। एक बार ऐसे सम्बन्ध का निरीक्षणों एवं परीक्षणों द्वारा पुष्टि हो जाने पर इसके आधार पर ही वैज्ञानिक समय-समय पर भविष्यवाणियाँ करने में समर्थ हो पाते हैं। यह इसलिये सम्भव हो पाता है क्योंकि वहाँ एक नियतता वर्तमान रहती है, जो बताती है कि यदि 'अ' होगा तो 'ब' भी होगा। परन्तु 'अ' के होने या न होने में किसी को कोई हस्तक्षेप नहीं होता। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि ये नियम वैज्ञानिक बनाते नहीं बल्कि खोजते हैं। इस प्रकार विज्ञान के दृष्टिकोण से नियतता को किसी भी प्रकार से स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं मानना चाहिये। नियतता के