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१०६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ प्रेरणा इस काव्य से मिलती है। चौरासी पेज की विस्तृत प्रस्तावना है जिसमें अपभ्रंश भाषा और साहित्य की परम्परा का दिग्दर्शन किया गया है। अन्त में दो परिशष्ट हैं और सन्दर्भ ग्रन्थ सूची भी दी गई है। ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। काव्य चार सन्धियों में विभक्त है। ३. पाइअ-गज्ज-पज्ज-संगहो सम्पादक- डॉ० जिनेन्द्र जैन, प्रकाशक- जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध संस्थान, श्री पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश, मूल्य- रु० १२०। इस सङ्कलन में प्राकृत की कुछ चुनी हुई कथाओं का सङ्कलन किया गया है। आठ कथाएँ गद्य में हैं और तीन पद्य में। इनके अतिरिक्त पद्य में दो सङ्कलन प्राकृत के महत्त्व और सुभाषित से सम्बन्धित हैं। जैनधर्म से सम्बन्धित ये कथाएँ रोचक, शिक्षाप्रद और महत्त्वपूर्ण हैं। सम्पादक डॉ० जिनेन्द्र जैन ने १५ पृष्ठ की भूमिका में प्राकृत भाषा, उसके स्वरूप एवं विकास पर विचार किया है जो महत्त्वपूर्ण है। कथाएँ जीवनोपयोगी हैं जो संयम, दान, तप, विवेक आदि से सम्बन्धित हैं। जैसे; लोभ का कहीं अन्त नहीं, माङ्गलिक पुरुष की कथा, विदुषी पुत्रवधु की कथा, मधुबिन्दु दृष्टान्त, अगरदत्त की कथा, शिल्पीपुत्र की कथा इत्यादि। इन कथाओं के माध्यम से प्राकृत भाषा सीखने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है। ग्रन्थ में हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ और अभ्यास दिये गए हैं। ४. अक्खाणयमणिकोसं (मूल एवं हिन्दी अनुवाद) लेखक- नेमिचन्द्रसूरि, सम्पादक- डॉ० जिनेन्द्र जैन, प्रकाशक- जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध संस्थान, श्री पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश, मूल्य- रु० ७५। श्री नेमिचन्द्रसूरि द्वारा लगभग बारहवीं शताब्दी में यह ग्रन्थ लिखा गया। इसमें ५२ गाथाओं के माध्यम से जैनधर्म-दर्शन के विविध विषयों का पालन करने के लिए सोदाहरण कथाओं का निर्देश किया गया है। इसमें कथाओं का केवल नाममात्र है, पूरी कथा नहीं है। उन कथाओं का विस्तार उनके शिष्य आन्तदेवसूरि ने १४००० श्लोक प्राकृत भाषा में पद्यात्मक व्याख्या ग्रन्थ में किया है जिसका नाम है आख्यानमणिकोशवृत्ति। अनुवादक ने अपनी ३४ पृष्ठ की प्रस्तावना में जैन-साहित्य, प्राकृत-कथा, कथा-साहित्य, गन्थ-ग्रन्थाकार आदि से सम्बन्धित विस्तृत विचार किया है। अन्त में गाथानुक्रमणिका और कथासूत्र अनुक्रमणिका दी गई हैं। कथासूत्र-अनुक्रमणिका में यह बतलाया गया है कि किस कथा से सम्बन्धित कितनी गाथाएँ मिलती हैं। कथासूत्र अनुक्रमणिका से यह जाना जा सकता है कि किस कथा का कितनी गाथाओं से वृत्ति में विस्तार किया गया है।