Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 121
________________ ११० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ उपाधि (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) हेतु शोध-प्रबन्ध है। डॉ० शीला सिंह पार्श्वनाथ विद्यापीठ की न्यूकेम शोधछात्रा रही हैं और उन्होंने डॉ० अशोक कुमार सिंह के निर्देशन में शोध किया था। भारतीय संस्कृति की प्रमुख परम्पराओं वैदिक और श्रमण में परस्पर प्रभूत विनिमय हुआ है। आज आवश्यकता विविध परम्पराओं में अन्तर्निहित एकता के तत्त्वों का समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने की है। द्रौपदी का चरित्र जैन एवं वैदिक परम्परा में सामान्य रूप से लोकप्रिय है। परन्त अपनीअपनी पृथक् पृष्ठभूमियों के कारण दोनों परम्पराओं में द्रौपदी का चित्रण-परिवेश पृथक्-पृथक् है। जैनाचार्यों की प्रवृत्ति जैन सिद्धान्तों को दृष्टान्तों के माध्यम से सहज बनाकर प्रस्तुत करने की रही है। इस कारण हिंसा, असंयम और निदान के भयावह परिणामों का उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने के लिए द्रौपदी कथा को आधार बनाया गया। इस कृति में वैदिक एवं जैन दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध प्रचुर साहित्य के सम्यक् अध्ययन के आधार पर द्रौपदी कथा का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस कृति के माध्यम से द्रौपदी के कथानक पर व्यापक प्रकाश पड़ेगा। ३. कर्मग्रन्थ : शतक, भाग ५ (मूल, हिन्दी अनुवाद एवं व्याख्या) अनुवादक एवं व्याख्याता- पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री जैनदर्शन में कर्म को एक विशेष प्रकार का जड़ पदार्थ (कार्मण वर्गणा) माना गया है जो जीव की राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ घुलमिल जाता है। जीव की क्रिया के फलस्वरूप आकृष्ट होकर वह जीव से बँधता है, अत: भौतिक पदार्थ होते हुए भी अरूपी आत्मा के साथ एक विशेष प्रकार के बन्ध को प्राप्त होता है। आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं वहाँ जैनदर्शन का मन्तव्य है कि राग-द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ एक प्रकार का द्रव्य आत्मा में आता है, जो उसके राग-द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा से बँध जाता है। कालान्तर में यही द्रव्य आत्मा को शुभ-अशुभ फल देता है। पूर्व में यह ग्रन्थ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन धार्मिक शिक्षा समिति, बड़ौत, मेरठ, द्वारा वीरनिर्वाण सम्वत् २४६८ (सन् १९४१) में प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थ की महत्ता एवं उपादेयता को देखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ इसके सभी खण्डों का अति आवश्यक संशोधन कर पुन: प्रकाशन कर रहा है। * **

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