Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 77
________________ ६६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २०११ बिना स्वतन्त्रता की कल्पना भी नहीं की जा सकती।४७ इसी प्रकार दार्शनिक क्षेत्र में भी स्वतन्त्रता का अर्थ नियतता की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि स्वाधीन नियतता है अर्थात् एक स्वतन्त्रकर्ता बाहर से नहीं वरन् अपने आप के द्वारा ही नियत होता है इस प्रकार कर्मवाद तथा स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी नहीं हैं। कर्मवाद का सिद्धान्त भी कारणता का नियम है जिसे किसी ने बनाया नहीं है, अपितु मनीषियों ने इसे खोजा है, इसका व्याख्यान किया है। यह सिद्धान्त सदा से इसी प्रकार प्रवर्तमान है" जिसके अनुसार 'यदि जीव ऐसा कर्म करेगा तो ऐसा फल मिलेगा ऐसी भविष्यावाणी की जा सकती है । परन्तु इस कारण- कार्य की नियतता को न तो विवशता कहा जा सकता है तथा न ही कोई बाह्य-दबाव। मानव के कर्म उसके स्वभाव को निर्धारित करते हैं परन्तु ये उसके अपने कर्म हैं उसकी अपनी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले अपने क्रियाकलाप जो भविष्य में उसे फल देते है । ४९ जैनदर्शन का जीव स्वयं अपने द्वारा कृत कर्म की श्रृंखला में बँध कर उन कर्मों के विपाक का अनुभव करता है। वह उस कारण-कार्य-नियतता से उत्पन्न बन्ध की स्थिति, अनुभाग आदि को घटाने - बढ़ाने में भी समर्थ है । यहीं नहीं अपितु जीव चाहे तो उचित पराक्रम के द्वारा कर्मों की इस श्रृंखला को तोड़ भी सकता है, छिन्न-भिन्न कर सकता है तथा इससे मुक्त भी हो सकता है।५° इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनदर्शन जीव के इच्छा - स्वातन्त्र्य तथा नियतवाद का समन्वय स्थापित करता है। सन्दर्भ सूची : १ २ - ३ ४ ५ ६ S. E. Forest, The Basic Teaching of Great Philosophers, p. 56. A Modren Introduction to Ethics, p. 356, The Fress Press Glenocode, Illinos. Ibid, p. 358. Ibid, p. 357. "Moral Consciousness implies freedom of will", A History of Philosophy-Frank Thilly, p. 444. डा. डी. आर. जाटव, प्रमुख पाश्चात्य दार्शनिक, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ० ३८ ।

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