Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 45
________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. २१. णेव सयं लोगं अब्माइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइखेज्जा । जे लोगं अभाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति जे लोगं अब्भाइक्खति । आचारांगसूत्र, सूत्र १/१/४/३२ एत्थ सत्थं सभारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति । एत्थ सत्थं असभारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति — वही, सूत्र १/१/४/३२ जस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी परिणायकम् त्ति बेमिवही, सूत्र १/१/४/३९ इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण - माणणपूयणाए जाती - मरण-मोयणा दुक्ख पडिघातहेतु से सयमेव वणस्सतिसत्थं सभारंभति, अण्णेहिं वा वणस्सतिसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति। तं से अहियाए, तं से अबोहीए — वही, सूत्र १/१/५/ ४३ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए । वही, सूत्र १/१/५/४४ तं परिण्णाए मेहावी व सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं वणस्सतिसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभते समणजाणेज्जा- वही, सूत्र १/१/५/४७ समवायांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, परिशिष्ट ६४६, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज० ), १९८२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, १९९२, पृ० ३२९ वही, पृ० ३३० अह सारही तओ भाइ, एए भद्दा उ पाणिणो । तुज्झं विवाहकज्जंमि, भोयावेडं बहुं जणं ।। उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय २२, सूत्र १७, संपा०- अमर मुनि, आत्मज्ञानपीठ, मानसा मण्डी (पंजाब) ***

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