Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 53
________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ कारण-कार्य के आधार पर वस्तु की नित्यानित्यता अब यदि कहा जाय कि द्वितीयादि क्षण में अस्थिति के परिकल्पित होने से अन्यानन्यत्व रूप में कल्पना नहीं करनी चाहिए, तो वस्तु के कल्पित होने से वह असत् है। इसीलिए द्वितीयादि क्षण में भी अस्थिति ही हुई। इसी तरह यदि कहा जाय कि प्रथम क्षण स्थिति से भिन्न जिसकी जो द्वितीयादि क्षण अस्थिति है, वह परिकल्पित है, इसीलिए जिसकी प्रथम क्षण स्थिति है वह ही द्वितीयादि क्षण अस्थिति है। इस तरह भी जो प्रथम क्षण स्थिति है वह द्वितीय क्षण अस्थिति होगी। अत: यहाँ भी पूर्वोक्त दोष प्राप्त होता है। इस स्थल पर क्षणिकवादियों द्वारा यह कहा जा सकता है कि द्वितीयादि क्षण में अस्थिति होने से प्रथम क्षण स्थिति बनती नहीं है (प्रथम क्षण स्थिति का अभाव होता है) और यदि प्रथम क्षण स्थिति का भाव हो तो द्वितीय क्षण अस्थिति की अनुपत्ति होती है तथा प्रतियोगी (विरोधी) का अभाव होने से अन्यानन्यत्व की कल्पना भी सम्भव नहीं है, इसीलिए उससे उत्पन्न दोष आते ही नहीं हैं। द्रष्टव्य है कि द्वितीयादि क्षण में वह वस्तु (जो प्रथम क्षण में है) है ही नहीं (क्योंकि वह क्षणिक है)। उपर्युक्त तर्क भी उचित नहीं है क्योंकि यदि ऐसा हो तो भी वह (स्थिति) स्वयं अस्थित होने के कारण स्थिति की तरह से ही अस्थिति भी उसका धर्म हो जाएगा। यदि अस्थिति को उसका धर्म नहीं मानते तो सदा स्थिति ही रहेगी। द्रष्टव्य है कि द्वितीय क्षण में उसकी (वस्तु की) ही स्थिति है और इसलिए स्वहेतु द्वारा वह स्थिति धर्म वाला एवं अस्थिति धर्म वाला है, ऐसा मानना चाहिए। अक्रमयुक्त धर्म वाले कारण से क्रमयुक्त धर्म वाले कार्य की उपपत्ति घटती नहीं है। यदि ऐसा होता है तो जब स्थिति होगी तभी अस्थिति भी होगी। इसी प्रकार क्षणस्थित धर्म कहाँ रहेंगे? स्थिति हो तो भी क्षणिक स्थिति होने से प्रथम क्षण स्थिति के साथ अविरोध होने से प्रथम क्षण की तरह सदा स्थिति का प्रसङ्ग आएगा। इस तरह निरंश और क्षणस्थित धर्मक स्वभाव वाले हेतु से वैसे स्वभाव वाला कार्य हो ऐसा कहना युक्तिहीन होने के कारण विद्वानों को शोभा नहीं देता, क्योंकि कारण और कार्य दोनों में स्वभावान्तर कल्पना (नित्य स्वभाव की कल्पना) भी कर सकते हैं। यदि प्रतिपक्षी यह कहे कि अर्थक्रिया के अभाव का प्रसङ्ग होने से यह स्वभावान्तर कल्पना अशक्य है तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि वास्तव में क्षणस्थिति धर्म वाली वस्तु के बारे में ही अर्थक्रिया के अभाव का प्रसङ्ग आता है। उदाहरणार्थयथोक्त स्वभाव वाली वस्तु ही अर्थक्रिया है क्योंकि कहा गया है कि 'जो होने

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