Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ जैन दर्शन में इच्छा - स्वातन्त्र्य की समस्या : ६१ अन्तर्निहित है कि भविष्य में उस कृत्य की पुनरावृत्ति नहीं होगी । यह सारे विचार इस धारणा से जुड़े हैं "यदि मैं चाहता तो यह कार्य नहीं करता। परन्तु स्वतन्त्रता के अभाव में यह विश्वास केवल एक भ्रम बनकर रह जायेगा। यदि इच्छा-स्वातन्त्र्य न हो तो व्यक्ति का वर्तमानकालिक पश्चात्ताप उसकी भविष्यकालिक कार्यपद्धति में कोई परिवर्तन नहीं ला सकेगा। अतः पश्चात्ताप की भावना व्यर्थ हो जायेगी। यदि फिर वही दुष्कृत्य को उत्पन्न करने वाले कारण एवं परिस्थितियाँ सामने होंगी तो उसका यह दुष्कृत्य भी पुनरावृत्त होगा फिर चाहे वह कितना भी पश्चात्ताप क्यों न करें। " इस प्रकार स्वतन्त्रता का अर्थ हुआ- "अपनी इच्छा के अनुसार इस इच्छा - प्रसर में बिना किसी रुकावट के सब कुछ कर डालने का सामर्थ्य" । " परन्तु यदि इच्छा-स्वातन्त्र्य के इस प्रकार के अर्थ को मान्यता दे दी जाये तो कई वैज्ञानिक एवं दार्शनिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस विश्व में सर्वत्र 'कारण- कार्यभाव' का नियम व्याप्त है। मनुष्य प्रकृति का ही एक भाग है। अतः उसके व्यवहार के समस्त पहलू इसी नियम के अन्तर्गत आते हैं। यद्यपि अभी तक वैज्ञानिक मानवीय व्यवहार के समस्त पहलुओं को पूर्णतया समझ नहीं पाये हैं, तथापि वे आशा करते हैं कि विज्ञान शीघ्र ही इस दिशा में आशातीत प्रगति कर लेगा तथा उन नियमों को अनावृत्त कर पायेगा जिनके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार विशेष के कारणों पर प्रकाश पड़ेगा जिससे भविष्य में मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकेगी। इसलिये इच्छा - स्वातन्त्र्य की कल्पना विज्ञान के इस पूर्वनियतता की मान्यता के विपरीत होने से अवैज्ञानिक है। ऐसी ही स्थिति दार्शनिक क्षेत्र में कर्मवाद के सिद्धान्त की है जो कि कारण- कार्यभाव के नियम पर आधारित है। अतः यहाँ भी इच्छा-स्वातन्त्र्य के लिये कोई स्थान नहीं रहेगा। कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार राग-द्वेष से संयुक्त इस संसारी जीव के भीतर प्रति समय जो परिस्पन्दरूप एक प्रकार की क्रिया होती रहती है उसके निमित्त से आत्मा के भीतर एक प्रकार का बीजभूत अचेतन द्रव्य आता है और वह रागद्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बँध जाता है। समय पाकर वही बीजभूत सुख-दुःख रूप फल देने लगता है इसे ही कर्म कहते है। ज्ञातव्य है " कर्म प्रदेशों का आत्मा के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही हो जाना बन्ध है" । ९१ अथवा आत्मा और कर्मों का एक दूसरे में प्रवेश करना अर्थात् परस्पर मिल जाना बन्ध है । १२ O

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122