Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 71
________________ ६० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ करना चाहिये तथा जो भी गलत है उसे छोड़ना चाहिये। 'हमें करना चाहिये' यह वाक्यांश तभी सार्थक हो सकता है यदि हम न कवेल करणीय को कर सकने में समर्थ हों बल्कि हमारे सामने कुछ तद्भिन परिस्थितियाँ भी उपस्थित रहें, हम जिनके अनुसार कार्य कर सकते हों अर्थात् करणीय तथा अकरणीय दोनों के उपस्थित होने पर चुनाव की स्थिति की अपेक्षा से ही 'करना चाहिये' ऐसा वाक्यांश सार्थक होता है। इस प्रकार विकल्पों की उपस्थिति नैतिकता की आवश्यक शर्त है। जब हमारे सामने ऐसे विकल्प हों जिनमें से कुछ उचित तथा कुछ अनुचित प्रत्येक समान रूप से सम्भव साध्य बन सकें तो नीतिशास्त्रज्ञों के अनुसार तब वह चुनना चाहिये जो ठीक हो। काण्ट के शब्दों में "नैतिक चेतना का अर्थ इच्छा-स्वातन्त्र्य है'। परन्तु यदि एक व्यक्ति के सभी व्यवहार अथवा क्रियाकलाप पूर्वनियत कारणों द्वारा नियमित हों तो फिर यह परिणाम निकलता है कि इस विशेष परिस्थिति में उसने जो किया वह उससे भिन्न प्रकार से वह कार्य नहीं कर सकता था। यदि उसके सभी व्यवहार एक अन्धप्रक्रिया अथवा आवश्यकता के दबाव के अन्तर्गत किये जाने हैं तो 'उसे करना चाहिये' ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसा करना तो उसके लिये असम्भव ही है। यदि एक व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले कार्यों के साथ एक अपरिहार्य 'करना है' जुड़ा है तो वहाँ उस बलात् के होते हुये 'उसे करना चाहिये' वाक्य वृथा व निरर्थक हो जाता है। अरस्तू ने ठीक ही कहा है "नैतिक आचरण ऐच्छिक, प्रयोजनात्मक तथा स्वतन्त्रतापूर्वक चुनी हुई क्रिया है''।' इसी प्रकार धर्मशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य गलत तथा सही में से एक का चुनाव करने में असमर्थ हो तो पाप की अवधारणा को उसके चरित्र पर लागू नहीं किया जा सकता। किसी भी व्यवहार को पापपूर्ण कहा जाने का अर्थ है कि यह कार्य अथवा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिये था। इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति को हम उसके किसी कार्य विशेष द्वारा होने वाली क्षति की पूर्ति के लिये कहते हैं तो उसका भी यही अर्थ है कि वह कार्य उसकी इच्छा-स्वातन्त्र्य का प्रकटीकरण है। हम उसे ऐसे किसी कार्य द्वारा हुई क्षतिपूर्ति के लिये नहीं कह सकते जिस पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं है। इस स्वातन्त्र्य की अनुपस्थिति में पश्चात्ताप की भावना भी निर्मूल एवं नि:चेष्ट हो जाती है। कोई पश्चात्ताप तब करता है जब वह समझता है कि उसने जो किया वह उसे नहीं करना चाहिये था। इसी में यह भावना भी

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