Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 70
________________ जैन दर्शन में इच्छा-स्वातन्त्र्य की समस्या डॉ० रूबी जैन जैन कर्मवाद के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समन्वय इस आलेख में किया गया है। कर्मवाद व्यक्तिस्वातन्त्र्य को रोकता है, ऐसी धारणा सही नहीं है अपितु इसमें पुरुषार्थ या व्यक्ति स्वातन्त्र्य पूर्णतः परिलक्षित होता है। - सम्पादक इच्छा-स्वातन्त्र्य की समस्या प्राचीनकाल से ही मनीषियों के समक्ष रही है। इसका सम्बन्ध न केवल नीतिशास्त्र, विधिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र की प्रासङ्गिकता से है अपित इस प्रश्न से भी है कि जीव का इस समग्र ब्रह्माण्ड में क्या स्थान है? वह एक रेंगने वाला कीड़ा मात्र है या कि वह स्वेश्वर है, जो स्वयं अपना भाग्य लिख सकता है?१ वह कोई स्वतन्त्र ईकाई है जो अपनी उन्नति अथवा अवनति का निर्धारण स्वयं कर सकता है या कि वह इस विशाल जगत् रूपी यन्त्र का एक कल-पुर्जा मात्र है? इस विषय पर विचार करने वाले दार्शनिक परस्पर दो वर्गों में विभक्त हैं। उदाहरण के लिये यदि हम मान लें कि एक व्यक्ति कोई कार्य किसी विवशता अथवा किसी प्रकार के दबाव में कर रहा है तो प्रश्न उठता है कि क्या उस व्यक्ति को कार्य के लिये किसी प्रकार के दण्ड अथवा पुरस्कार का भागी मानना चाहिये अथवा नहीं? २ एक विधिशास्त्री की दृष्टि से जो भी कार्य किसी दबाव के अन्तर्गत किया जाता है उसके लिये करने वाले को पूर्णत: दोषी नहीं ठहराया जा सकता। न ही उसे न्यायोचित्त ढंग से दण्डित किया जा सकता है। इसी आधार पर कुछ विज्ञजन तर्क देते हैं कि यदि सभी स्वैच्छिक कार्य किन्हीं पूर्व नियत घटनाओं (कारणों) का अवश्यम्भावी परिणाम होते हैं तो इसके लिये काम करने वाले व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं माना जाना चहिये। जब कारणों पर उसका कोई नियन्त्रण ही नहीं है तथा कार्य उन्हीं कारणों का परिणाम है तो कार्यों में उस कर्ता का हाथ कैसे माना जा सकता है? अतः इसके लिये उसे दण्डित करना अन्यायपूर्ण है। कुछ इसी प्रकार की स्थिति नीतिशास्त्र की भी है। नीतिशास्त्री अच्छे तथा बुरे, ठीक तथा गलत में अन्तर करते हैं। वे बताते हैं कि हमें जो ठीक है वही

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