Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद : ४३ वाला है वही उसकी क्रिया है' तो उपर्युक्त कथन के अनुसार वह अर्थक्रिया ही नहीं घटती है। अतः क्षणिक वस्तु की अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। इसी प्रकार यहाँ भी विज्ञानादि कार्य की उत्पत्ति होना असम्भव है। अतः नित्यानित्य स्वभाव वाली वस्तु ही कथंचित् स्थिति रूप होने से नाना स्वभाव वाली होने से विज्ञानादिक पैदा करती है और उससे उसका ज्ञान होता है। वस्तु का जो नित्यानित्यत्व है वह वस्तु के स्वयं द्रव्यपर्यायोभय स्वरूप होने से एवं अनुवृत्ताकार व्यावृत्ताकार संवेदन ग्राह्य होने से प्रत्यक्ष सिद्ध है। उदाहरणार्थमृत्पिण्ड, शिवक (पशुओं द्वारा शरीर खुजलाने हेतु खम्भा), स्थासक (पानी का बुलबुला), घट, कपालादि के बारे में अविशेष रूप से सर्वत्र मृत्तिका के अन्वय की आवृत्ति जानी जाती है और प्रतिभेद में पर्याय की व्यावृत्ति जानी जाती है। जैसे कि मृत्तिका पिण्ड में जिस आकार का संवेदन है, उस आकार का संवेदन शिवकादि में नहीं है, क्योंकि आकार भेद का अनुभव होता है। मृत्तिका से विजातीय अग्नि, जल, पवन आदि का उससे जिस आकार का भेद है वैसा शिवकादि का परस्पर नहीं है, क्योंकि मृत्तिका उसमें अन्वित है, ऐसा अनुभव होता है। इसी तरह ऐसे स्वसंवेद्य संवेदन का अपलाप करना योग्य नहीं है क्योंकि प्रतीति का विरोध होता है। निराकार संवेदन से यह अर्थान्तर है ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि निराकार संवेदन से विवक्षित वस्तु का ज्ञान नहीं होता। वस्तु के आकार का अनुभव किए बिना अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता क्योंकि अति प्रसङ्ग आता है तथा सब जीव सभी पदार्थों को जानने वाले हो जाने की आपत्ति आती है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि यह संवेदन भ्रान्त रूप है क्योंकि देशान्तर, कालान्तर, नरान्तर, अवस्थान्तर इन सब के बारे में विशेषत: प्रवृत्त है। उदाहरणार्थदेशान्तर से, कालान्तर से, नरान्तर से या अवस्थान्तर से मृत्पिण्डादि का संवेदन जैसा है वैसा ही रहता है। इसी तरह अर्थ से उत्पन्न हए अविसंवादी संवेदन को जानकर जाति विकल्प से पदार्थ व्यवस्था मानना योग्य नहीं है, क्योंकि प्रतीति से वह विरुद्ध हो अग्राह्य सिद्ध होता है। जो एकान्त नित्य है उससे यथोक्त (अनुवृत्त व्यावृत्ताकार) संवेदन सम्भव नहीं है क्योंकि व्यावृत्ताकार के निबन्धन रूप जो पर्याय भेद है वह ही वहाँ सम्भव नहीं है। अन्यथा (यदि पर्याय भेद से हो तो) एकान्त नित्यता की ही अनुपपत्ति होती है। इसीलिए कहा भी गया है- एकान्तनित्य भावों द्वारा अन्वय व व्यतिरेक उभयात्मक संवेदन बनता नहीं है क्योंकि धर्म (पर्याय) भेद का अभाव है। इसी प्रकार एकान्त नित्य पदार्थ से भी अन्वय-व्यतिरेकवत् संवेदन होने का अभाव है, क्योंकि वहाँ अनुवृत्ताकार के कारण (निबन्धन) रूप द्रव्याद्रव्य का

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