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अङ्ग साहित्य में वर्णित पारिवारिक व्यवस्था का स्वरूप : ५३ निष्पादन में चातुर्य, विवेक तथा बद्धि को निरूपित किया गया है। ज्ञाताधर्म के अनुसार-" वधुओं के कार्यों का विभाजन परिवार के मुखिया के द्वारा मनोवैज्ञानिक परीक्षा के आधार पर किया जाता था, परिणामस्वरूप उन्हें क्रमशः परिवारसंचालिका, कोषागार-नियामिका तथा भोजन बनाने एवं सफाई के कार्यों में नियुक्त किया जाता था।" इस तरह के उद्धरण सास-श्वसुर व वधुओं के मध्य भी मधुर सम्बन्धों का बोध कराते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त प्रसङ्गों से यह परिलक्षित होता है कि पति-पत्नी दोनों का परिवार में समान महत्त्व था। दोनों ही अपनी सद्वृत्तियों और रीतियों से परिवार को सुखमय बनाये रखने में तत्पर रहते थे। बदलते हुए नैतिक मूल्यों और परिवर्तनशील कालों के संदर्भ में पति-पत्नी का यह आदर्शमय रूप सदैव प्रेरणास्पद रहेगा। सन्तान किसी भी संस्कृति के कुटुम्ब का उद्भव तो विवाह से होता है किन्तु उसका विकास सन्तान से होता है। सन्तान ही परिवार की अभिवृद्धि में सहायक होते हैं जिससे परिवार की पूर्णता का लक्ष्य पूरा होता है। सन्तान के अन्तर्गत पुत्र व पुत्री दोनों ही आते हैं। किसी संस्कृति में पुत्र को अधिक महत्ता प्रदान किया गया है तो किसी में पुत्री को। किन्तु जैन संस्कृति में दोनों को ही समान दृष्टि से देखा गया है। ब्राह्मण परम्परा की भाँति पुत्रों को ही विशेष महत्ता नहीं प्रदान किया गया है। ब्राह्मण साहित्य में पुत्रों को वैतरणी नदीपारक, पितृ ऋण से मोक्ष प्रदान कर्ता तथा कुल व वंश का वर्धक बतलाया गया है। जैन अङ्ग साहित्य में इस तरह के किसी भी तथ्य का उल्लेख नहीं मिलता है। जैन अङ्ग साहित्य के उद्धरण के अनुसार- "समाज में पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्य परिवार की रक्षा, पोषण व उत्तराधिकारी सम्बन्धी दायित्वों के निर्वहन करने से था। अङ्ग साहित्य में ऐसे अनेक प्रसङ्ग मिलते हैं, जिसमें पिता की प्रव्रज्या के समय पुत्र ही उत्तराधिकारी मनोनीत होते हैं जिनमें ज्येष्ठ पुत्रों को विशेष अधिकार प्राप्त था। उत्तराध्ययनसत्र में पत्र की महत्ता के संदर्भ में वर्णित है- "जिस प्रकार शाखाओं से रहित वृक्ष, पंखों से रहित पक्षी, युद्ध में सेना से रहित राजा तथा जलपोत पर धनरहित व्यापारी असहाय होता है, उसी प्रकार पुत्र के बगैर पिता भी असहाय होता है। प्रायः पुत्रों के जन्म के अवसर पर कई प्रकार के संस्कारों का भी आयोजन किया जाता था, जैसे- अन्नप्राशन, पंचक्रय, कर्णवेधन, चूलोनयन आदि जिसमें प्रत्येक