Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ अभाव है। निरन्वय अनित्य पदार्थ को स्वीकार करने वाले को उससे अन्य उसके जैसी वस्तु का प्रभाव सम्भव नहीं है, क्योंकि सर्वथा हेतु निवृत्ति मानने पर अहेतुक होने का प्रसङ्ग आता है। यदि कथंचित् निवृत्ति मानें तो अन्वय सिद्ध होगा। हरिभद्र द्वारा कहा भी गया है- “सर्वथाकारणोच्छेदाद्भवेत् कार्यमहेतुकम्। तच्छक्त्यवयवाधारस्वभावानामनन्वयात्"२२। अर्थात् सर्वथा कारण का उच्छेद होने से कार्य अहेतुक होता है, क्योंकि कारणगत शक्ति के आधार पर रूप अवयव का कार्य के साथ अन्वय है ही नहीं। इस अन्वय-व्यतिरेक वाले संवेदन का कोई बाधक प्रत्यय नहीं है क्योंकि कदापि भी उसकी उपलब्धि नहीं होती है। यागज प्रत्यय को यदि बाधक कहा जाय तो यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि उसका प्रमाण नहीं है। कहा भी गया है, “योगी क्षणिक को जानता है और नित्य को नहीं जानता यह कैसी प्रथा कहलाती है? शिष्य के अनुकूल उपदेश तो रीत से भी प्रवृत्त है।" अर्थात् 'योगी को जगत् का प्रतिक्षण भिन्न वस्तु समष्टि रूप में ही प्रत्यक्ष होता है और स्थिर वस्तु का समष्टि रूप में प्रत्यक्ष नहीं होता', इसमें कोई नियामक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं' भगवान् बुद्ध का यह कथन ही इस बात में प्रमाण है कि योगी को क्षणिक रूप में जगत् का साक्षात्कार होता है, क्योंकि वह वस्तु को जिस रूप में देखता है उसी रूप में उसका उपेदश करता है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उपदेश योग्य व्यक्ति की मानसिक स्थिति के अनुसार अनुग्रहार्थ वस्तु का अतद्रूप में भी उपदेश हो सकता है। यह ठीक उसी प्रकार है कि जैसे अपनी जीवित भार्या में आसक्त ब्राह्मण की सन्यास आश्रम में प्रवेश की इच्छा पूर्ति के लिए, कोई उसकी जीवित भार्या को मृत बताता है। अत: योगी ज्ञान से भी वस्तु को अनित्य (क्षणिक) सिद्ध नहीं किया जा सकता है। इस तरह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उठाये गए उक्त आक्षेप उचित नहीं हैं, अन्वय सहित व्यतिरेक और व्यतिरेक सहित अन्वय ऐसा ही व्यक्ति का स्वरूप है। इसीलिए आचार्य हरिभद्र कहते हैं, 'भेद है इसलिए अन्वय नहीं है, अन्वय है इसलिए भेद नहीं, ऐसा मृत्तिका और भेद उभय जो संसर्ग वृत्ति जात्यन्तर है, वह घट कहलाता है। इसलिए वह जिस तरह से नित्य है उसी तरह से अनित्य भी है, क्योंकि पर्यायों के द्रव्य में अभ्यन्तरीकृत हो जाने से (समा जाने से) द्रव्यरूप से नित्य है। इसी प्रकार वह जिस तरह से अनित्य है उसी तरह से नित्य भी है क्योंकि वह पर्याय रूप से अनित्य है और द्रव्य पर्यायों में अभ्यन्तरीकृत है। अत: वस्तु का उभयरूपत्व अनुभवसिद्ध है।

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