________________
अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद : ३९ वस्तु का भावरूप पहलू तथा उसका अभावरूप पहलू परस्पर भिन्न भी हैं तथापि वे अनिवार्यत: साथ-साथ भी रहते हैं। अन्य दार्शनिक वस्तु के नित्यानित्य स्वरूप की सिद्धि अशक्य मानते हैं। उनका आक्षेप है जिस तरह एक ही वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का रहना योग्य नहीं है उसी तरह नित्यानित्य स्वरूप भी विरोधी होने से असिद्ध है। प्रतिपक्षी का तर्क है कि स्पष्ट विधि से वस्तु के इस स्वभाव का विरोध है। अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एक स्वभाव वाला जो है वह नित्य कहलाता है और स्वभाव से ही एक क्षण अवस्थित रहना जिसका धर्म है वह अनित्य कहलाता है। इस प्रकार इस मान्यतानुसार यदि कोई वस्तु नित्य है तो वह अनित्य नहीं हो सकती और अनित्य है तो नित्य नहीं हो सकती है। इसी स्थल पर वस्तु की परिणामी नित्यता पर आक्षेप करते हुए कहा गया है कि यदि द्रव्य को कूटस्थनित्यतयानित्य नहीं स्वीकार करके वरन् उसको परिणामी नित्य स्वीकार कर द्रव्य का पर्याय के समान उच्छेद नहीं स्वीकार किया जाय तो यहाँ ऐसी नित्यता सम्भव नहीं है क्योंकि पर्याय से भिन्न द्रव्य असिद्ध है। पर्याय से व्यतिरिक्त द्रव्य की प्राप्ति अनुभव से भी नहीं होती है। इसीलिए कहा भी गया है- “पर्यायभेदिनो नित्यं द्रव्यं स्यात्तत्स्वरूपवत्। स्याद्वादविनिवृत्तिश्च नानात्वे संप्रसज्यते।"१३ अर्थात् पर्याय भिन्न हैं और उसके स्वरूप वाला द्रव्य नित्य है तथा नानात्व (द्रव्य-पर्याय भिन्नत्व) से स्याद्वाद की विनिवृत्ति होती है। इसीलिए व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त पक्ष भी विरोधाघाती होने से अनुरोष्य ही है। ऐसी सभी आपत्तियों के उत्तर में आचार्य हरिभद्र का यही कहना है कि स्थायित्व एवं परिवर्तन का प्रत्येक वस्तु में अनिवार्यत: साथ-साथ रहना एक अनुभव सिद्ध बात है जबकि अकेले स्थायित्व या अकेले परिवर्तन का किसी वस्तु में रहना प्रमाणसिद्ध बात नहीं है। भेद से रहित केवल अभेद कहीं नहीं पाया जाता और न ही अभेद से रहित केवल भेद भी कहीं पाया जाता है। ऐसी दशा में (केवल भेद अथवा केवल अभेद की सत्ता सम्भव मानते हुए ) जैन सिद्धान्त पर, जिसके अनुसार भेद तथा अभेद अनिवार्यतः साथ रहते हैं, आपत्तियाँ उठाना कहाँ तक उचित है? उदाहरणार्थ जब प्रतिपक्षी द्वारा पूछा जाता है कि एक वस्तु जिस आकार से भेद रूप वाली है उस आकार से क्या वह भेदरूप वाली ही है अथवा भेद व अभेद दोनों रूपों वाली तो जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर स्वरूप कहते हैं कि "कोई वस्तु केवल भेद रूप वाली अथवा केवल अभेदरूप वाली तो होती ही नहीं और यह वस्तु जैसी है वह तो कहा ही जा चुका है"१४ अर्थात् यह वस्तु भेद तथा अभेद दोनों रूपों वाली है यह कहा ही जा चुका है।