Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद डॉ० राहुल कुमार सिंह वस्तु का स्वरूप क्या है? क्या नित्य है? क्या अनित्य है या प्रौव्य है? जैन दर्शन में स्पष्ट कहा गया है कि जो वस्तु उत्पाद, व्यय और प्रौव्य से युक्त होगी वही सत् होगी- इसी को आधार बनाकर लेखक ने अपने पत्र में वस्तु के स्वरूप को आचार्य हरिभद्रकृत 'अनेकान्तवादप्रवेश' के सन्दर्भ में मण्डित करने का प्रयास किया है। अन्य दर्शनों में वस्तु की नित्यानित्य सिद्धि अशक्य मानते हैं। उनका आक्षेप है कि जिस तरह एक ही वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का रहना योग्य नहीं है उसी तरह नित्यानित्य स्वरूप भी विरोधी होने से असिद्ध है। जैन दर्शन पर इस तरह के आक्षेप सांख्य, बौद्ध, न्याय आदि दार्शनिकों द्वारा उठाये जाते रहे हैं। विद्वान् लेखक ने इस आलेख में इन समस्याओं का समाधान द्रव्य-पर्याय, प्रमाण तथा कारण-कार्य के आधार पर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। - सम्पादक जैन दर्शन की मान्यता है कि जो भी वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त होगी वही सत् कही जाएगी। प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त है। प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण परिणाम होते रहते हैं, किन्तु उसमें रहने वाले द्रव्यत्व की स्थिति ध्रौव्य है, अत: प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक है। वस्तु का यह स्वरूप उसकी अनेकान्तता को दर्शाता है। जो अनन्त धर्मात्मक नहीं है, वह उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक भी नहीं है, जैसे आकाश-कुसुम। अनन्त धर्मात्मक वस्तु में धर्म उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं, धर्मी द्रव्यरूप से सदा नित्य बना रहता है। प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक युगल पाए जाते हैं। अत: वस्तु केवल अनेक धर्मों का पिण्ड नहीं है, किन्तु परस्पर विरुद्ध से दिखने वाले अनेक धर्म-युगलों का भी पिण्ड है। उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को ही स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादित करता है। यद्यपि धर्म का अर्थ सामान्यतः गुण होता है, इसे शक्ति भी कहते हैं, तथापि गुण और धर्म में अन्तर है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त शक्तियाँ हैं जिन्हें गुण या धर्म कहते हैं। उनमें से जो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं या सापेक्ष होती हैं, उन्हें धर्म कहते हैं, जैसे- नित्यत्वानित्यत्व, एकत्वानेकत्व, सत्त्वासत्त्व आदि। जो

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