________________
सर्प
आगमों में प्रतिपादित षड्जीव-अहिंसा विषयक अवधारणा : ३३ पार्श्वनाथ महावीर
सिंह इन लाञ्छनों को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैनधर्म पशु-पक्षियों के लिए कितनी श्रद्धा का भाव रखता है। लाञ्छनों के रूप में पश-पक्षियों को रखने का कारण इनके संरक्षण की भावना को विकसित करना है। उपर्युक्त विवेचनों से यह स्पष्ट होता है कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैनधर्म-दर्शन में उपलब्ध होता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं। सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणियों के संरक्षण की परिकल्पना जैन-धर्म-दर्शन में दृष्टिगोचर होती है। स्वयं महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्होंने अहिंसा का पाठ जैन दर्शन से ही सीखा है। अहिंसा का जितना सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप जैनधर्म में दृष्टिगत होता है अन्यत्र कहीं नहीं। सन्दर्भ सूची
तं परिण्णाय मेहावी णेव संय छज्जीव-णिकायं-सत्थं समारंभेज्जा णेवण्णेहि छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभते समणुजाणेज्जा। १.१७६- आयारो, प्रमुख वाचनाकार, आचार्य तुलसी, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), १९७४ से बेमि........संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा - वही, १/५४ आचारांगसूत्र - प्रथम अध्ययन, पिण्डैषणा, मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.), १९८० जं जस्स विणासकारणं तं तस्स सत्थं भण्णति। निशीथचूर्णि ३०१, द्रष्टव्य अभिधानराजेन्द्र, भाग ७, पृ० ३३ संति पाणा पुढो सिआ आचाराङ्गसूत्र, १/१/२/११ वही, सूत्र, १/१/२/१३ वही, सूत्र, १/१/२/१४
वही, सूत्र, १/१/२/१५ ९. श्री पुष्कर मुनि, अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ०- ३४६
तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदयसत्थं समारभेज्जा, णेवण्णेहिं उदयसत्थं समारभंते वि अण्णे ण समषुजाणेज्जा। आचारांगसूत्र, १/१/३/३० जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मे त्ति बेमि। वही, सूत्र १/१/३/३१
3; &24