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आगमों में प्रतिपादित षड्जीव-अहिंसा विषयक अवधारणा : ३१ बताई थी तब से जैन दर्शन का वनस्पति-सिद्धान्त एक वैज्ञानिक-सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। उपरोक्त दृष्टिकोण को ही ध्यान में रखकर जैन तीर्थङ्करों ने समवसरण सभा की परिकल्पना की है जो कि अर्हत् भगवान् की उपदेश देने की सभा का नाम है। इस सभा में तिर्यञ्च, मनुष्य व देव, पुरुष तथा स्त्रियाँ सब वहाँ पर बैठकर भगवान् के उपदेश को सुनते हैं। इस सभा की रचना विशेष प्रकार से देवतालोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियाँ बड़ी आकर्षक हैं, यथा- पुष्पवाटिकाएँ, नाट्यशालाएँ, वापियाँ, चैत्यवृक्ष इत्यादि। मिथ्या दृष्टि अभव्य जीव इसी को देखने में उलझ जाते हैं अर्थात् यहाँ पर पुष्पवाटिकाएँ, चैत्यवृक्ष आदि के मनोरम दृश्य के प्रति अभव्य जीवों की उनमें आसक्ति के कारण पर्यावरण (वृक्ष इत्यादि) की रक्षा की परिकल्पना जागृत होती है। अत्यन्त श्रद्धालु एवं भावुक व्यक्ति अष्टमभूमि में प्रवेश करके भगवान् के दर्शन पाते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में वर्णित है, 'इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्य ध्वनि के अवसर की प्रतिक्षा करते हुए बैठते हैं इसीलिए जानकार गणधरादि देवों ने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है। १९ वहीं पर वर्णित है कि वहाँ पर जिन भगवान् के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, बैर, कामबाधा तथा तृष्णा (पिपासा) और क्षुधा की पीड़ाएँ नहीं होती हैं।२० अर्थात् यहाँ पर यह दर्शाने का प्रयास किया जा रहा है कि इस स्थान पर वैर, तृष्णा आदि के समाप्त हो जाने से सब जीवों का सब जीवों के प्रति समभाव का उदय होता है जिससे वे मैत्री-भावना के साथ रहते हुए अहिंसा के पथ पर अग्रसर होते हैं, जहाँ पर विश्वबन्धुत्व की भावना दृष्टिगोचर होती है। समवसरण की परिकल्पना मुख्यतः सभी जीवों में अहिंसा की भावना को उत्पन्न करना है जिस कारण सभी जीव (पशु-पक्षी, मानव, देव इत्यादि) एक ही जगह पर एकत्रित होकर जिनवाणी का श्रवण करते हैं जो अहिंसा की महत्ता को दर्शाता है। जैनदर्शन में उपर्युक्त पञ्चकाय जीवों की अहिंसा के अतिरिक्त त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति भी अहिंसक दृष्टि का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जैनधर्म प्रारम्भ से ही अहिंसक धर्म रहा है। इसमें पशु-पक्षी इत्यादि को पूज्य के रूप में स्वीकार कर इनकी रक्षा करने का प्रसंग आता है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण राजा अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के विवाह के प्रसंग में देखने को मिलता है। अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) ने विवाह केवल इस कारण से नहीं किया कि उनके बारात में आये यदुवंशी राजा और राजकुमारों के स्वागत-सत्कार में इन पशुओं का वध किया जाएगा और इनके मांस से राजाओं के भोजन की सामग्रियाँ तैयार होंगी।