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भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा : ११ है तो कहीं परिणामी नित्यानित्य । कहीं अणुरूप है तो कहीं व्यापक या शरीर परिमाण। कहीं ईश्वर या ब्रह्म का अंश है तो कहीं ब्रह्म का विवर्त । कहीं मुक्तावस्था में अनन्त ज्ञान और सुख है तो कहीं ज्ञान और सुख दोनों का सर्वथा अभाव या केवल दुःखाभाव या शून्यता है । कहीं कर्त्ता और भोक्ता है तो कहीं अपने कर्तृत्व और भोक्तृत्व के लिए स्वतंत्र नहीं है। कहीं एक है तो कहीं अनेक । वह शरीर से भिन्न है, अरूपी है तथा चैतन्य के साथ उसका या तो गुण-गुणीभाव सम्बन्ध है या स्वयं चैतन्यरूप है। इस विषय में सभी आत्मवादी दर्शन एकमत हैं। आत्मा को चैतन्यरूप तथा ज्ञानरूप मानने में ही समस्याओं का समाधान है अन्यथा इसे मानने का कोई मतलब नहीं है। इसी तरह संख्या में अनेक, शरीर - परिमाण, सूक्ष्म, परिणामी नित्य और अरूपी मानना भी आवश्यक है। किसी न किसी रूप में सभी आत्मवादी दर्शन और तन्त्रवादी इससे सहमत हैं यदि कुछ अन्तर है तो अपेक्षाभेद का। मुक्तावस्था में स्व-स्वीकृत सिद्धान्तानुसार सभी ने आत्मा की शुद्ध - स्वरूपोपलब्धि को माना है। विज्ञान इस विषय में निरन्तर खोज कर रहा है परन्तु अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा है।
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सन्दर्भ सूची
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सर्वदर्शनसंग्रह पृ० ४-८; द्रष्टव्य भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, वाराणसी १९५७, पृ० १३५। किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् विज्ञानम् । जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।
ताम्बूल - पूगचूर्णानां योगाद् राग इवोत्थितम् ॥ सर्व सिद्धान्त संग्रह, कृत-प्रणाशाकृतकर्मभोग-भवप्रमोक्ष-स्मृतिभङ्गदोषान् ।
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उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन् अहो महासाहसिकः परोऽसौ ॥ अन्ययोगच्छेदद्वात्रिंशिका, आचार्य हेमचन्द्र, श्लोक १८
तदत्यन्त-विमोक्षोऽपवर्गः । न्यायसूत्र १.१.२२ स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः । ऊर्मिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः ।
संसारबन्धनाधीनदुःखक्लेशाद्यदूषितम् ॥ न्यायमंजरी, पाण्डुरङ्ग जावजी, बम्बई १९३३, पृ० ७७,
वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् । वैशेषिकोक्तमोक्षस्तु सुखलेशविवर्जितात् ॥ स०सि०सं०, पृ० २८ मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् ।