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१० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता। निश्चय की दृष्टि से आत्मा सदा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अकर्ता और अभोक्ता है परन्तु संसारावस्था में व्यवहार दृष्टि से वह कर्ता, भोक्ता आदि है। उसे जो शरीर प्राप्त होता है तदनुरूप हो जाता है। इसीलिए उसे शरीर-परिमाण कहा गया है, न व्यापक और न अणु। मुक्तावस्था में शरीर का अभाव हो जाता है परन्तु वह अपने पूर्व शरीर के आकार को नहीं छोड़ता है। सामान्य से सभी जीवों का आकार लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। संकोच-विकास शक्ति के कारण वह छोटे-बड़े शरीर में रह सकता है। वह सूक्ष्म और अरूपी भी है। मृत्यु के बाद भी संसारावस्था में उसके साथ कार्मण
और तैजस ये दो सूक्ष्म शरीर अवश्य रहते हैं। ज्ञानादि गुण आत्मा से कभी पृथक् नहीं होते हैं अत: उन दोनों में कोई भेद नहीं है फिर भी व्यवहार से (द्रव्य-गुण के भेद से) उनमें भेद किया जाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह ज्ञान और आत्मा में सर्वथा भेद नहीं है। अनेकान्तवादी दर्शन में अपेक्षाभेद से भेदाभेदकत्व बन सकता है। इसी तरह आत्मा बौद्धों की तरह क्षणिक तथा वेदान्तियों की तरह सर्वथा नित्य नहीं है परन्तु अपेक्षाभेद से नित्यानित्यात्मक है। मुक्त होने पर अशरीरी हो जाता है परन्तु मुक्तिपूर्व के शरीर का आकार (कुछ न्यून) बना रहता है। कर्म सम्बन्ध न होने से उनका संकोच-विकास नहीं होता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति में भी जीवत्व की सत्ता मानी जाती है। पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर पृथ्वी होता है, जलकायिक जीवों का शरीर जल। ये जीव एकेन्द्रिय होते हैं और इसके आगे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय होते हैं। कोई नित्य ईश्वर नहीं है और जिन्हें ये ईश्वर मानते हैं वे वीतरागी होने से न तो क्रोधादि करते हैं और न कृपादि करते हैं। ये सांख्य दर्शन की तरह साक्षी मात्र होते हैं। सूक्ष्मता और अरूपता के कारण एक अणुरूप स्थान में भी अनन्त जीव रह सकते हैं। मन को इन्होंने जड़ (पुद्गल) स्वीकार किया है। यह मन अणुरूप है और चैतन्य आत्मा के सम्पर्क से चेतनवत् कार्य करता है। यह मन पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है। जैनदर्शन में मन की कल्पना विशेष प्रकार से की गई है। इस तरह जैन दर्शन में आत्मा के विविध रूपों का विस्तार से चिन्तन किया गया है और उसे वेदान्त की तरह ज्ञानरूप माना गया है। इसीलिए मुक्तावस्था में ज्ञान, सुख आदि गुण उसके साथ अभिन्न रूप से रहते हैं। उपसंहार इस तरह इन सभी दर्शनों में जो आत्मतत्त्व का चिन्तन किया गया है उनमें चार्वाक और बौद्धों को छोड़कर सभी शरीर आदि से भिन्न आत्मा को स्वीकार करते हैं। कहीं चैतन्य उसका स्वरूप है, कहीं आगन्तुक धर्म, कहीं कूटस्थ नित्य