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८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २०११
जाता है। जैनदर्शन में इन तीनों प्रकार के जीवों को क्रमशः भव्य, भव्याभव्य और अभव्य कहा है। चैतन्यांश को लेकर ही भगवान् के साथ जीव की एकता प्रतिपादित की गई है। (ग) निम्बार्क दर्शन
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इसे सनत्कुमार सम्प्रदाय भी कहा जाता में अनेक हैं। वह हरि का अंशरूप है
है। इस मत में जीव अणुरूप तथा संख्या अंश का अर्थ अवयव या विभाग नहीं और ज्ञान स्वरूप भी है।
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है अपितु शक्तिरूप है। जीव कर्त्ता भी है (घ) वल्लभ दर्शन
इस दर्शन को रुद्र सम्प्रदाय भी कहते हैं। जीव ज्ञाता, ज्ञानस्वरूप, अग्नि के स्फुलिङ्ग के समान अणुरूप तथा नित्य है। जीव तीन प्रकार के होते हैं- शुद्ध, मुक्त एवं संसारी। यह भक्तिमार्गीय (पुष्टिमार्गीय) दर्शन है। यहाँ ईश्वर भक्ति ही सब कुछ है। ब्रह्म क्रीड़ार्थ जगत् का रूप धारण करता है। इनका सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है। इनके सिद्धान्त में ब्रह्म माया से अलिप्त होने से नितान्त शुद्ध है१८ |
(ङ) चैतन्य दर्शन
इस मत के प्रमुख थे महाप्रभु चैतन्यदेव तथा उनके शिष्य रूपगोस्वामी । इसे हम अपने कीर्तनों से बङ्ग देश को रसमय तथा भावविभोर करने वाला मत कह सकते हैं। आचार्य शङ्कर के समान ब्रह्म में सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नहीं हैं। ब्रह्म परमात्मा अखण्ड सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आदि अनन्त गुणों से युक्त है । भगवान् का विग्रह (शरीर) तथा गुण उससे भिन्न नहीं है। भाषा की दृष्टि से उनका पार्थक्य किया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से अचिन्त्य-भेदाभेद है१९। परमात्मा मूर्त होकर भी विभु है । जीव परिच्छिन्न स्वभाव तथा अणुत्व शक्तिक- युक्त है। ८. शैव दर्शन (शैव तन्त्र दर्शन)
यहाँ जीव को 'पशु' कहा गया है, परमेश्वर शिव को 'पति', माया रूपी जगत् को 'पाश' कहा गया है। जीव शिव का ही अंश माना गया है परन्तु वह अणुरूप और सीमित शक्ति सम्पन्न है, संख्या में अनेक है। शिवत्व - प्राप्ति होने पर उसमें निरतिशय ज्ञान तथा क्रिया शक्ति का उदय होता है । पासों के तारतम्य के कारण पशु (जीव) तीन प्रकार का होता है - विज्ञानाकल्प, प्रलयाकल्प और सकल। जीवों के तीन भाव हैं- १. पशुभाव - जिनमें अविद्या का आवरण न हटने से अद्वैत ज्ञान का लेशमात्र भी उदय नहीं है। इनकी मानसिक अवस्था पशुभाव है। ये संसार मोह में बँधे होने के कारण अधम पशु हैं। सत्कर्मपरायण-भगवद् भक्त