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२६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ भी कहा था कि पृथ्वी, पानी, वाय और अग्नि में भी जीवन है। एक ओर तो वे यह मानते थे कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अतः इनके दुरुपयोग, विनाश या हिंसा से उनका भी विनाश होता है। दूसरे ये स्वयं भी जीवन हैं क्योंकि इनके अभाव में जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं है। क्या हम जल, वायु, पृथ्वीतत्त्व एवं ऊर्जा (अग्नितत्त्व)के अभाव में जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं ? ये तो स्वयं जीवन के अधिष्ठान हैं। अतः इनका दुरुपयोग या विनाश स्वयं जीवन का ही विनाश है। इसलिए जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा गया है। हिन्दूधर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देवरूप माना गया है उनका आधार भी इनका जीवन का अधिष्ठान रूप होना ही है। जैन परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की अवधारणा उपस्थित थी। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक
और त्रसकायिक- ऐसे षड्जीवनिकायों की चर्चा प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है।
आचारांगसूत्र (ई.पू. ५वीं शती) का तो प्रारम्भ ही इन षड्जीव निकायों के निरूपण से तथा उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा से होता है। इन षड्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गए हैं। जब हम जैन आगमों पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि सम्पूर्ण जैन आगम ग्रन्थ एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रियों जीवों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए संकल्पित परिलक्षित होती है। जब हम आचारांगसूत्र का अवलोकन करते हैं तो हम देखते हैं कि आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन का नाम ही शस्त्रपरिज्ञा है। शस्त्र का अर्थ है 'हिंसा के उपकरण या साधन'। जो जिसके लिए विनाशक या मारक होता है वह उसके लिए शस्त्र है। चाकू, तलवार आदि हिंसा के बाह्य साधन, द्रव्य शस्त्र हैं। राग-द्वेष युक्त कलुषित परिणाम भाव-शस्त्र है। परिज्ञा का अर्थ है ज्ञान अथवा चेतना। इस शब्द से दो अर्थ ध्वनित होते हैं- ज्ञ-परिज्ञा द्वारा वस्तुतत्त्व का यथार्थ परिज्ञान तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा हिंसादि के हेतुओं का त्याग। हिंसा की निवृत्ति अहिंसा है। अहिंसा का मुख्य आधार है आत्मा। आत्मा का ज्ञान होने पर अहिंसा में आस्था दृढ़ होती है तथा अहिंसा का सम्यक् पालन किया जा सकता है। अब हम क्रम से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रस-काय-हिंसा निषेध की चर्चा विस्तार से करेंगे।