Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 38
________________ आगमों में प्रतिपादित षड्जीव-अहिंसा विषयक अवधारणा : २७ पृथ्वीकायिक जीवों के बारे में आचारांग में कहा गया है- 'पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येक-शरीरी होते हैं। पुनः भगवान् महावीर कहते हैं कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए जन्म, मरण तथा मुक्ति के लिए एवं दुःख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। वह उसकी त्रिबोधि अर्थात् ज्ञान-बोधि, दर्शन बोधि और चारित्र बोधि की अनुपलब्धि में कारणभूत होती है। पृथ्वीकायिक जीवों के हिंसा के बारे में आगे कहा है, "वह साधक (संयमी) हिंसा के दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, आदानीय-संयम साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों को भगवान् या अनगार मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि यह जीव-हिंसा ग्रन्थि है, यह मोक्ष है, यह मृत्यु है और यही नरक है । भगवान् महावीर को वनस्पतिकाय जीवों की पीड़ा का पूर्ण अनुभव था। वे तो सदैव कहा करते थे जैसे हमें पीड़ा या कष्ट अनुभव होता है वैसे ही सभी ऐन्द्रिक जीवों को होती है। उन्होंने कहा है, "जैसे कोई किसी जन्मान्ध व्यक्ति को (मूसल, भाला आदि से) भेदे, चोट करे या तलवार आदि से छेदन करे, उसे जैसी पीड़ा की अनुभूति होती है वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकाय जीवों को होती है। जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर मूर्च्छित करे या प्राण-वियोजन ही कर दे, उसे जैसी कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझनी चाहिए।" उपर्युक्त उद्धरणों को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के मन में पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति असीम दया थी। अप्काय को सजीव सचेतन मानना जैन दर्शन की मौलिक मान्यता है। भगवान् महावीरकालीन अन्य दार्शनिक जल को सजीव नहीं मानते थे, किन्तु उसमें आश्रित अन्य जीवों की सत्ता स्वीकार करते थे। तैत्तिरीय आरण्यक में 'वर्षा' को जल का गर्भ माना जाता है और जल को प्रजनन शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रजनन क्षमता सचेतन में ही होती है, अतः सचेतन की धारणा का प्रभाव वैदिक चिन्तन पर पड़ा है ऐसा माना जा सकता है। किन्तु मूलतः अनगार दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक जल को सचेतन नहीं मानते थे। अनागार में जल के तीन प्रकार बताये गए हैं- १. सचित-जीव सहित, २. अचितनिर्जीव और ३. सजीव-निर्जीव मिश्रित जल। जैन दर्शन केवल अचित् जल को स्वीकार करने पर बल देता है। आचारांग में कहा गया है- बुद्धिमान मनुष्य यह जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करें, दूसरों से न करवायें और उसका

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