Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ २८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करें। पुनः कहा है जिसको जल सम्बन्धी समारम्भ का ज्ञान होता है, वही परिज्ञात कर्मा (मुनि) होता है। जलकाय जीवों की हिंसा को 'अदत्तादान' कहने के पीछे एक विशेष कारण है। तत्कालीन परिव्राजक आदि कुछ संन्यासी जल को सजीव तो नहीं मानते थे परन्तु अदत्त जल का प्रयोग नहीं करते थे। जलाशय आदि के स्वामी की अनुमति लेकर जल का उपयोग करने में वे दोष नहीं मानते थे। अतः जल के जीवों का प्राण-हरण करना हिंसा है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी भी जीव की हिंसा, हिंसा के साथ-साथ अदत्तादान भी है। अहिंसा के सम्बन्ध में यह बहत ही सूक्ष्म एवं तर्कपूर्ण चिन्तन है। जैनधर्म अग्निकायिक जीवों के प्रति भी अपनी अहिंसक दृष्टि रखते हैं। आचारांग में कहा है- वह (जिज्ञासु साधक) कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का अर्थात् उसकी सजीवता का अपलाप (निषेध) न करे। वह अपने आत्मा के अस्तित्व का अपलाप न करे क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है। जो दीर्घलोक शस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक शस्त्र का स्वरूप भी जानता है। इसी क्रम में भगवान महावीर ने अग्निकायिक जीव-हिंसानिषेध पर भी विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने कहा है जो अग्निकाय जीवों पर शस्त्र प्रयोग करता है, वह इन आरम्भ-समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दुःखद परिणामों से छूट नहीं सकता है। जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरम्भ का ज्ञाता अर्थात् हिंसा से मुक्त हो जाता है१२ तथा जिसने यह अग्नि-कर्म-समारम्भ भली प्रकार समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात कर्मा (कर्म का ज्ञाता और त्यागी) है। इस प्रकार अग्निकाय-जीवों पर सम्यक् अहिंसक दृष्टि जैनधर्म में उपलब्ध होती है। जैनधर्म में वनस्पतिकाय जीवों पर भी अहिंसक दृष्टि प्रस्तुत की गयी है एवं इनके संरक्षण की बात कही गयी है। भगवान् महावीर ने कहा है कि इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, पूजा, जन्म-मरण, मुक्ति और दुःख का प्रतिकार करने के लिए वह (तथाकथित साधु) वनस्पतिकाय जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है, यह उसके अहित के लिए होता

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