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आगमों में प्रतिपादित षड्जीव-अहिंसा विषयक अवधारणा
डॉ० नवीन कुमार श्रीवास्तव इस शोधालेख में प्राचीन आगमों के अनुसार षड्जीवनिकाय-अहिंसा के माध्यम से पर्यावरण-संरक्षण और उसके संतुलन में जैन योगदान को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। पृथ्वीकायिक, अग्निकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक एवं स्थावर जीवों की मानसिक, वाचिक एवं कायिक हिंसा का तीनों करणों (कृत, कारित एवं अनुमोदित) से त्याग करने पर पर्यावरण की रक्षा पूर्णरूपेण स्वयमेव हो जाती है। विभिन्न वृक्षों एवं पशुओं को तीर्थङ्करों से सम्बद्ध करने के पीछे उनकी महत्ता एवं उनके संरक्षण की दृष्टि परिलक्षित होती है। - सम्पादक
जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है। सामान्यतया इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है किन्तु जैनधर्म को एकान्त रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता है। यह सत्य है कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा से ही हुआ है किन्तु मात्र इस आधार पर उसे समाज-सापेक्ष या व्यक्तिवादी धर्म मानना एक भ्रान्ति ही होगी। जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःख-मुक्ति का जीवन आदर्श, यह जैन परम्परा का अथ
और इति है। किन्तु दुःख और दुःख-मुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं, उनका एक सामाजिक पक्ष भी है। दुःख-मुक्ति का उनका आदर्श मात्र वैयक्तिक दुःखों से मुक्ति नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्राणी जगत् के दुखों की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है। श्रमणधारा में धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म तथा नीति की यह अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट कर देती है। जैन वाङ्मय पर यदि हम अपनी दृष्टि डालते हैं तो यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जैनधर्म इस भूलोक में रहकर ही निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति संयम, अहिंसा और अपरिग्रह पर सर्वाधिक बल दिया गया है। उसके इन्हीं मूलभूत सिद्धान्तों के आलोक में जैनधर्म में ऐसे अनेक आचार नियमों का निर्देश हुआ है जिनका परिपालन आज पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए आवश्यक है। जैनधर्म के प्रवर्तक आचार्यों ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न केवल प्राणीय जगत् एवं वनस्पति जगत् में जीवन की उपस्थिति है, अपितु उन्होंने यह