Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ ६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ इस तरह कुमारिल भट्ट के अनुसार आत्मा चित्-अचित् उभयरूप है। ‘आत्मा क्रियाशील है अथवा नहीं' इस सम्बन्ध में कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर मिश्र में मतभेद है। आत्मा के व्यापक होने से भाट्ट स्पन्दरूप क्रिया नहीं मानते हैं। केवल रूप परिवर्तन को क्रिया मानते हैं। वस्तुतः मीमांसा दर्शन का उद्देश्य वेदविहित-विधि वाक्यों का व्याख्यान करना है१३। मीमांसा में मोक्ष-विषयक दर्शन का विचार बाद में लौगाक्षिभास्कर द्वारा हुआ है। ये ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। न्याय-वैशेषिक आत्मा में क्रिया स्वीकार नहीं करते हैं। इस दर्शन की खास विशेषता है आत्मा को नित्य-परिणामी स्वीकार करना जैसा कि जैनदर्शन में माना जाता है। आत्मा में चित् और अचित् दोनों मानना असंगत है। ६. वेदान्त (उत्तर-मीमांसा या ज्ञान-मीमांसा) उपनिषद् विद्या ही वेदान्त विद्या (वेद+अन्त) है। महर्षि वादरायणव्यास कृत ब्रह्मसूत्र (उपनिषदों पर आश्रित) की व्याख्या कई आचार्यों ने की है जिससे वेदान्त के कई उपभेद हो गए हैं। इसमें शङ्कराचार्य का अद्वैत-वेदान्त प्रमुख है। आचार्य शङ्कर के अनुसार आत्मा ब्रह्म (परमात्मा) ही है। ब्रह्म निर्विकल्पक, निरुपाधिक, निर्गुण, निर्विकार और चैतन्यरूप है। निर्गुण ब्रह्म जब अनिर्वचनीय माया से उपहित हो जाता है तो वह ईश्वर या सगुण ब्रह्म कहलाता है। विश्व की सृष्टि, स्थिति, लय का कारण यही ईश्वर है। यह ईश्वर न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह सृष्टि का केवल निमित्त कारण नहीं है अपितु निमित्त और उपादान कारण दोनों है। वह चैतन्य ब्रह्म जब अन्त:करणावच्छिन्न होता है तो उस चैतन्य को जीव कहते हैं अर्थात् शरीर और इन्द्रियों का अध्यक्ष और कर्म-फल-भोक्ता आत्मा ही जीव है। उसका चैतन्य न्याय-वैशेषिक की तरह कादाचित्क (कभी होना और कभी नहीं होना) रूप नहीं है अपितु सदा (स्वप्न, सुषुप्ति और जागृत) तीनों अवस्थाओं में रहने वाला है। ब्रह्म का ही रूप होने से आत्मा भी व्यापक है। उसमें जो अणुरूपता की कल्पना की जाती है वह उसके सूक्ष्म रूप होने के कारण है। आत्म-चैतन्य को जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में तथा अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय इन पाँच कोशों में देखा जा सकता है परन्तु आत्मा का शुद्ध चैतन्य-रूप इन पञ्च कोशों से नितान्त भिन्न है। यह आत्मा नित्य है, व्यापक है, चैतन्यस्वरूप है, एक है, स्वयंसिद्ध है। बुद्धि के कारण इसमें चञ्चलता प्रतीत होती है अन्यथा वह शान्त स्वभाव है। यह ब्रह्म का विवर्त है, परिणाम नहीं। वस्तुतः ज्ञाता और ज्ञान पृथक् नहीं हैं, आत्मा ज्ञानरूप भी है और ज्ञाता भी है। आत्मा के समक्ष जब विषय उपस्थित रहता है तो वह ज्ञाता हो जाता है अन्यथा वह केवल ज्ञानरूप रहता है अर्थात् ज्ञान ही

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