Book Title: Sramana 2011 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा : ७ ज्ञाता हो जाता है। ज्ञेय विषय के न रहने पर ज्ञाता की कल्पना नहीं रहती है। अनित्य ज्ञान जो विषय-सानिध्य से उत्पन्न होता है वह अन्त:करणावच्छिन्न-वृत्ति मात्र है। विषय और विषयी का पार्थक्य व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं क्योंकि परब्रह्म ही कभी विषयी रूप से, कभी विषय रूप से ज्ञात होता है। वह एक अखण्डरूप है और नानात्मक जगत् काल्पनिक या मायिक है। सगुण ब्रह्म उसका तटस्थ लक्षण (आगन्तुक) है और चिदानन्दरूप निर्गुण ब्रह्म उसका स्वरूप लक्षण (तात्त्विक) है। आचार्य शङ्कर माया को त्रिगुणात्मिका, ज्ञान-विरोधी, भावरूप तथा अनिर्वचनीय ब्रह्म की अपृथक्भूता शक्ति मानते हैं। इस तरह शाङ्कर वेदान्त में आत्म-तत्त्व परम शुद्ध चैतन्य ब्रह्म का ही रूप है। अत: मुक्तावस्था में जीव ब्रह्मरूप ही हो जाता है। 'अहं ब्रह्मास्मि' तथा 'तत्त्वमसि' इन महावाक्यों से ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। मुक्तावस्था में ज्ञान, सुखादि भी रहते हैं। इस मत में समस्या यह है कि जब सब ब्रह्म रूप है तो वह बन्धन में कैसे पड़ा? और एक के मुक्त होने पर सभी को मुक्त क्यों नहीं माना गया? यदि उसमें अंश की कल्पना करते हैं तो उसका विभु (व्यापक) रूप नष्ट होता है। ७. वैष्णव दर्शन इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच समुदाय प्रमुख हैं(क) रामानुज दर्शन यह दर्शन विशिष्टाद्वैतवादी है। इनके मत में ब्रह्म में सजातीय और विजातीय भेद न होकर स्वगत भेद है, जबकि शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म तीनों प्रकारों के भेदों से रहित है। यहाँ ब्रह्म के दो अंश हैं- चित् और अचित्। अत: तीन पदार्थ हैंचित्, अचित् और ईश्वर। चित् से तात्पर्य है भोक्ता जीव, अचित् से तात्पर्य है भोग्य जगत् तथा चित्-अचित् विशिष्ट से तात्पर्य है ईश्वर। यह ईश्वर जगत् का अभिन्न-निमित्तोपादान कारण है। यह कारण-व्यापार न तो अविद्या कर्म-निबन्धन है और न कर्मयोगमूलक है अपितु स्वेच्छाजन्य है। जीव तत्त्व अत्यन्त अणु, नित्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, आनन्दरूप, निरवयव, निर्विकार, ज्ञानाश्रय, अजड़ तथा देह, इन्द्रिय-मन प्राण बुद्धि से विलक्षण है१५। (ख) माध्व दर्शन'६ आनन्दतीर्थ का प्रसिद्ध नाम था 'मध्व'। यह ब्रह्म सम्प्रदाय कहलाता है। इनके मत में 'विष्णु' अनन्त गुण सम्पन्न परमात्मा हैं। 'लक्ष्मी' परमात्मा की शक्ति है। संसारी जीव अज्ञान, मोह, दुःख, भयादि दोषों से युक्त है। ये तीन प्रकार के हैं- मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी और तमोयोग्य। ये तीनों क्रमश: उत्तम, मध्यम और अधम कोटि के होते हैं। मुक्त जीवों के ज्ञान, आनन्दादि गुणों में तारतम्य पाया

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