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भारतीय चिन्तन में आत्म-तत्त्व : एक समीक्षा
प्रो० सुदर्शन लाल जैन
इस आलेख में सभी भारतीय दर्शनों तथा तन्त्र सिद्धान्तों में आत्मा के स्वरूप के विषय में गम्भीर एवं समीक्षात्मक चिन्तन किया गया है। इस चिन्तन के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा की नित्यता, अनित्यता, अणुरूपता, व्यापकता, शरीर-परिमाणता, सूक्ष्मता आदि का समन्वय अनेकान्तदृष्टि से किया जा सकता है क्योंकि बिना अनेकान्त-दृष्टि अपनाये कोई भी दर्शन अपने मत की पुष्टि नहीं कर सकता। इतना अवश्य है कि आत्मा चेतन है, ज्ञानरूप है तथा शरीर-इन्द्रियादि से भिन्न है।
- सम्पादक
भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व (चेतन तत्त्व) के सम्बन्ध में बहुत गम्भीरता से चिन्तन हुआ है। आत्मा शरीर से भिन्न है या अभिन्न, एक है या अनेक, अणुरूप है या व्यापक या शरीर-परिमाण, नित्य है या अनित्य, ज्ञान उसका अपना स्वभाव है या आगन्तुक धर्म? इत्यादि प्रश्नों का समाधान विभिन्न धर्मों में विभिन्न प्रकार से मिलता है१. अनात्मवादी चार्वाक दर्शन शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से चेतन तत्त्व को पृथक् स्वीकार नहीं करने वाले चार्वाक दर्शन की मान्यता है कि 'पृथ्वी, जल, तेज, वायु' इन भूतचतुष्टयों से निर्मित शरीर, मन, इन्द्रियादि से भिन्न कोई पृथक चेतन तत्त्व नहीं है। शरीर के उत्पन्न होने पर चेतनता उत्पन्न होती है और उसके नष्ट होने पर समाप्त हो जाती है। 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं कृष हूँ' इत्यादि अनुभूतियाँ इसमें प्रमाण हैं तथा 'मेरा शरीर' 'मेरी इन्द्रियाँ' इत्यादि अनुभूतियाँ काल्पनिक हैं। इसीलिए यह दर्शन देहात्मवादी, भौतिकवादी कहलाता है। इस दर्शन के प्रणेता बृहस्पति हैं, इसीलिए इसे 'बार्हस्पत्य दर्शन' भी कहा जाता है। इसका प्राचीन नाम 'लोकायत' (लोक में आयत या व्याप्त) है तथा मीठी बातें करने वाला, स्वर्ग-नरक आदि का चर्वण करने वाला होने से चार्वाक (चारु+वाक्) प्रसिद्ध है। आत्मा को न मानने से यह पुनर्जन्म, मोक्ष, ईश्वर आदि में विश्वास नहीं करता है। इसका एक मात्र सिद्धान्त है
'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।
__ भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः' ।। अनुमान के द्वारा (अन्वय-व्यतिरेकी) भी वे अपनी बात को सिद्ध करते हैं 'शरीर