Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ प्रेक्षाध्यान एवं भावातीत ध्यान : एक चिन्तन : १३ अन्तराल देना सीख लेता है। जैसे-जैसे जप की प्रक्रिया आगे बढ़ती है, अन्तराल भी उसी के साथ आगे बढ़ता है। एक बार मन्त्र जपा और पाँच सेकेण्ड बिल्कुल निर्विकल्प रहे। जब यह अवस्था बढ़ती चली जाती है तो जप भावातीत हो जाता है और एक समय ऐसी स्थिति आती है जब शब्द छूट जाता है और केवल अर्थ रह जाता है। यही स्थिति भावातीत ध्यान की है। इस अवस्था को समाधि भी कहा जाता है। प्रारम्भ में शब्द और विचार का आलम्बन लिया जाता है, वह निर्विचार में बदल जाता है, शब्द और विचार छूट जाते हैं और केवल तन्मात्र रह जाता है, अर्थ की अनुभूति रह जाती है। प्रेक्षाध्यान में भी अहँ का जप कराया जाता है। जप करते-करते 'अहं' शब्द छूट जाता है और 'अर्ह' का अर्थमात्र रह जाता है, व्यक्ति समाधि में चला जाता है। समाधि में चले जाना ही भावातीत ध्यान है, यही व्यक्ति की भावातीत चेतना है। प्रेक्षाध्यान पद्धति में जप को अस्वीकृत नहीं किया है इसमें अन्य प्रयोगों जैसेकायोत्सर्ग, अन्तर्यात्रा, श्वासप्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा, लेश्याध्यान, चैतन्यकेन्द्रप्रेक्षा, प्राणायाम, आसन आदि के साथ-साथ जप का प्रयोग भी कराया जाता है।५ एकाग्रता के लिए जप का प्रयोग बहुत जरूरी होता है। जप और भावना अलग-अलग नहीं हैं अपितु एक ही है। भावातीत ध्यान को तन्मय ध्यान भी कहा जाता है। साध्यमय हो जाना या साधक और साध्य का भेद न रहना अर्थात् ध्येय को अपने आप में संक्रान्त कर देना। हम जिस किसी का ध्यान करते हैं, अपने आपमें उस का अनुभव करना ही तन्मयध्यान, तद्रूपध्यान, समापत्ति या भावना है। कहा भी गया है- तद् जपः तदर्थभावनम् अर्थात् जिसका ध्यान करें उसी की भावना करें। अहम् का जप करते समय अहमय हो जाना, ॐ का जप करते समय ओम्मय हो जाना, शिव का जप करते समय शिवमय हो जाना आदि ही भावना है और यही जप है। जप करते-करते ऐसा भी क्षण आता है जब अपरिमित आनन्द आने लगता है। शक्ति की कोई सीमा नहीं रहती अर्थात् वह भी अपरिमित हो जाती है और वैसी ही क्रिया होने लगती है। भावातीत ध्यान की तरह ही प्रेक्षाध्यान में भी जप का प्रयोग कराया जाता है। शब्द और अशब्द- इन दोनों ही पद्धतियों का ध्यान में समावेश किया गया है। शब्द के द्वारा ही विकास होता है। यदि शब्द का प्रयोग नहीं होगा तो विकास रुक जायेगा। शब्द या सुरत एक ही है। सन्त कबीर ने भी सुरत का बहुत प्रयोग किया है।६ मन्त्र को बनाते समय मन्त्र निर्माता को यह ज्ञान होता है कि किन शब्दों का गठन किया जाय, क्योकि मन्त्र में शब्द का अर्थ गौण होता है; केवल 'शब्द' की शक्ति ही प्रधान होती है। गठन का आधार ही है, प्रकम्पन। अमुक-अमुक शब्द मिलकर किस प्रकार का प्रकम्पन उत्पन्न करेंगे, इस आधार पर शब्द संरचना संगठित होती है। सम्पूर्ण ध्वनि-चिकित्सा (Sound Therepy) प्रकम्पनों के आधार पर ही चलती है। प्रेक्षाध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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