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श्रीपालचरितम्
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*GARANSA
सिक्खेइ भरहसत्थं, गीयं नद्रं च जोइस तिगिच्छं । विजमंतंतंतं, हरमेहल चित्तकम्माइं॥५६॥ भाषादीका. | अर्थ-और भरतशास्त्र याने नाट्यशास्त्र सीखें तथा गीतगान और नाचना सीखें तथा ज्योतिषशास्त्र और रोगकीसहितम्. चिकित्सारूप वैद्यकशास्त्र और विद्या मंत्र तंत्र सीखें तथा चित्रकला सीखें ॥५६॥
अन्नाइं वि कुंटलविटलाइं, करलाघवाइ कम्माइं। सत्थाई सिक्खियाई, चित्तचमुकारजणयाइं ॥५७॥ | अर्थ-सुरसुंदरीने औरभी कुंटलविंटल कर्म नाम कार्मण वशीकरणादि सीखें और करलाघवादिक याने हथफेरी वगैरहः कर्म सीखें औरभी लोगोंके चित्तमें चमत्कार करनेवाले शास्त्र सीखे ॥ ५७ ॥ सा काविकला तं किंपि, कोसलं तंच नत्थि विन्नाणं। सिक्खियं न तीए, पन्ना अभिओगजोगेण॥५॥ | अर्थ-वह कोई कला नहीं है और ऐसा कोई कौशल्य निपुणत्व नहीं है ऐसा कोई विज्ञान चातुर्य नहीं है जो | सुरसुंदरी कन्याने बुद्धि और उद्यमके योगसे नहीं सीखा ॥ ५८॥ सविसेसं गीयाइसु, निउणा वीणाविणोय लीणा सा। सुरसुंदरी वियढ्ढा, जाया पत्ता य तारुन्नं ॥ ५९॥ | अर्थ-विशेष करके गीतादिक कलामें निपुण विचक्षण भइ और वीणाके विनोदमें लगा है मन जिसका ऐसी सुर| सुंदरी विचक्षण भई और यौवन अवस्था प्राप्त भई ॥ ५९॥ जारिसओ होइगुरू, तारिसउ होइ सीसगुणजोगो । इत्तुच्चिय सा मिच्छा, दिढि उक्किट्ठदप्पा य ॥६॥
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