Book Title: Shraddh Pratikraman Sutram
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 386
________________ श्राद्धप्रति० सूत्रम् ॥१६०॥ Jain Educatio | सबहुमाणं धणयसाहवित्ता सम्मं सरुवं च परवित्ता पुच्छि - मो सचमेव युच्चसु किं नु तए तं कंकणं न गहिअं ?, वणिणो कागिणिगणणानिउणा इक्काइ कागणीएवि । लोहक्खो हेअहिया कुणति वीसत्थदोहमवि | ॥ १ ॥ इह इत्तिअमित्तंभिवि वित्तंमि तुमं तु खोहिओ न कहूं? । किं तुह परघणगहणे निअमो संका व | मह जाया ? ॥ २ ॥ तेनवि भणिअं सामी ! निअमो मह कोवि ननघणगहणे ? | तुह संकावि न कावि हु | पडिअग्गहणे हि को दोसो ? ॥ ३ ॥ किं तु परवित्तग्रहणं अणओ अणओ अ दविणखयजणओ । को वा दुन्नयकारी सुपुरिससद्दं समीहते ? ॥ ४ ॥ तम्हा कयावि न कयं इममि जम्मंमि जं मए पुधिं । तं परदविणादाणं पावद्वाणं करूं कुछे ? ॥ ५ ॥ तओ रन्ना चिंतिअं - अहो उत्तमपगइत्तणमिमस्स - दढ नियमनिबद्धावि हु पधाविरा | केवि कुप्पहंमि सथा । निअमं विणावि एगे संजमिआ निअयपगईए ॥ १ ॥ वायससाणखराई निवारिआवि हु हवंति अमुइरई । हंसफरिसीहपमुहा न कयावि पशुलिआव पुणो ॥ २ ॥ तओ उवलद्धविसुद्धतप्परिक्खणेण | भूषणेण संजायएगंत विस्सासो एसो निअभंडारि अपए रजपएव अपुचपचपुत्रिं ठाविओ भणिओ अ सबहुमाणंभो ! भरेहि मह भंडारं कणेहिं कोट्टागारं व अपुत्र २ तररयणेहिं, गिण्हिज्रमाणमाणिक्काणं दसमं २ माणिक्कं तुमए गहिअवं अपुर्वपि सर्वति, विहिओ अ तस्स पसाओ, अहो ! नयमग्गस्स संगस्सव निसग्गमुहरससग्गस्स अणग्गलं किंपि इपि फलं, तओ तेण परिक्खिअ २ कमेण संगहिआणि रन्नो सिरिहरे रयणायरे इव अणेगाणि अपुवरयणाणि, सोवि दसंसमणिमित्तसंग हेण जाओ कमेण भणिकोडीसरो, यतः - "जायते जलदवृन्दवृष्टिभिः, For Private & Personal Use Only २८गाथा या देशाव काशिके धनदज्ञातं ॥१६०॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474