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थोकडा नं. ४.
सूत्र श्री आचारांग अध्य० १ उ०१
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(द्रव्यदिशा भावदिशा) पांचमा गणधर सौधर्मस्वामि अपने शीष्य जम्बुस्वामि प्रत्ये कहेते है हे जम्बु इन्ही संसारके अन्दर कितनेक जीव एसे अज्ञानी है कि जिन्होंको यह ज्ञान नहीं है कि पूर्वभवमें में कोन था और कोन दिशासे में यहांपर आया हूं. दिशा दो प्रकारकि होती है (१) द्रव्यदिशा (२) भावदिशा.
(१) द्रव्यदिशा अढारा (१८) प्रकारकि है यथा (१) इन्द्रादिशा (पूर्वदिशा), (२) अग्निदिशा (अग्निकोन), (३) जमादिशा (दक्षिणदिशा), (४) नैऋतदिशा (नैऋतकोन), (५) वायुदिशा (पश्चिमदिशा), (६) वायुणा (वायुकोन), (७) सोमादिशा (उत्तरदिशा), (८) इसाना (इशानकोन), (९) विमलादिशा (उर्ध्वदिशा), (१०) तमादिशा (अधोदिशा) एवं दश दिशा है जिसमें च्यार दिशा च्यार विदिशा इन्ही आठोंका अन्तरा आठ दश दिशाके साथ मिलानेसे १८ द्रव्यदिशा होती है पूर्वोक्त जीवोंको यह ख्याल नहीं है कि इन्ही अढारा