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(४०) दर्शन संपन्न होनेसे जीव जो संसार परि भ्रमनका -मूल कारण अन्तानुबंधी कोषमान माया लोभ और मिथ्यात्व मोहनिय है उन्होंका मूलसे ही उच्छेद कर देता है एसा करते हुये च्यार धन धाती कर्मेका नाश करते हुवे केवल ज्ञानदर्शनको उपार्जन करते है तब लोकालोकके भावको हस्तांमलकी माफिक देखता हुवा विचरता है ।
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(६१) प्रश्न- अव्रतका नाश करके चरित्र संपन्न होता है 'उन्होंका क्या फल होता है ।
( उ० ) चरित्र ( यथाक्षात ) संपन्न होने से जीव शलेसीकरण वाला चौदवा मुणस्थानको स्वीकार करता है चौदवा गुणस्थानको स्वीकार करते हुवे अंतः क्रिया करके जीव सिद्ध पदकी प्राप्ती कर लेते है ।
(६२) प्रश्न- श्रोतेन्द्रियकों अपने कबजे में करलेनेसे क्या फल होता है ।
( उ ) श्रोतेन्द्रियकों अपने कबजेमें करलेनेसे अच्छा और बुरा शब्द श्रवण करनेसे रागद्वेषजो कमौका बीज है उन्होंकी उत्पती नही होती है इन्होंसे नये कर्मोका बन्ध नही होता है पुराणे बन्धे हुवे कर्मों की निर्जरा होती है ।
(६३) प्रश्न- चक्षु इन्द्रिय अपने कबजे करनेसे क्या फल होता है ।
( उ ) चक्षु इन्द्रिय अपने कबजे करनेसे अच्छे और बुरे रूप देखनेसे रांग द्वेष न होगा। इन्हीसे नये कर्म न बधेगा और पुराणे बन्धे हुवे है उन्होंकि निर्जरा होगा