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पर माये स्नान मंजन कर अच्छे बस्त्र मूषण धारण करके अपने साथ लेने योग्य मुभट स्थ माविकों लेके चित प्रधान साक्वी नगरी गया सावत्थी नगरीके राजा जयशत्रुने भी प्रधानजीका अच्छा सत्कार किया प्रदेशी राजाका मेटणा मादर पूर्वक स्वीकार करके प्रदेशी राजाके कार्यमें प्रवृति करने लगा। - सावत्थी नगरीके कोष्टक नाम उद्यानमें श्री पाचप्रभु चोथे पाट पार विराजते हुवे केशीश्रमण भगवान* भपये शिष्य मंडलके परिवारसे पधारते हुवे, यह खबर नगरीमें होनेसे धर्मा भिलाषी पुरुषों महात्मावोंकि सेवाभक्ति और व्याख्यान श्रवर्ष करनेकों जा रहे थे। उन्हीं समय चित्त प्रधान भी इस बातको जानके आप भी केशीश्रमण भगवानके पास पहुंच गये। आये हुवे परिषदा वृन्दकों धर्मकथा कहेते हुवे भगवान केशीश्रमण संसारका स्वरूप अनित्य दर्शया और धर्मका महत्व बतलाया, यह धर्म दो प्रकारका है (१) साघु धर्म सर्वबती (२) श्रावक धर्म देशवती है, भव्य यथाशक्ति धर्मको स्वीकार कर प्रतिज्ञा पूर्वक आज्ञा पालन करनेसे जीव आराधीक होता है और आराधीक होनेपर अधिकसे
*केशीस्वामि समकालिन दोय हुवे है। गौतमस्वामिके साथ चर्च करी थी वह केसीश्रमण पार्श्वनाथजीके संतान मुनिपद धारक थे तीन ज्ञाप संयुक्त अन्तिम मोक्ष पधारे थे। और प्रदेशी राजाको प्रतिवोध दिवा - वह केशीश्रमण पार्श्वनाथजी संतान थे परन्तु आचार्य पद धारक यार ज्ञान संयुक्त अन्तिम बारहवे देवलोक पधारे थे। बास्ते दोनों केशीष समकालिन हुवे थे परन्तु हे भिन्न भिन्न एसा शासो द्वारा तया पार्थ पटापली द्वारा संभव होता है। यहा प्रदेशी राजाको प्रतिबोध करनेवाले केपीक्षण च्यार मन संयुक्त पार्थनापजीके चौथे पाट भाचार्य थे . . ..