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(६८) मलानभाइ तो सब लोकोंने. ताबांको छोडके चान्दी लेली और पेहलाकि माफीक लोहाणीयानेतों लोहा ही रखा आगे चलनेपर सुवर्ण लेलीया लोहावाणीयाने तो अपनी ही सत्यताको कायम रखी, आगे चलते हुवे एक रत्नोंकि खान आइ सब जीणोंने सुवणको छोड़के रत्न पहन कर लिया और हित बुद्धिसे । लोहावाणीयाकों काहा हे भाइ अपना हठको छोड दो इस स्वल्प मूल्यवाला बोहाकों छोडके यह बहु मूल्य रत्नोंको ग्रहन करों अबीतो कुच्छ नहीं वीगडा है अपने सब बराबर हो जावेगे तुम रत्नोंकों ग्रहन करलों उत्तरमे लोहावाणीयाने कहा कि बढ़ी हासी कि बात है कि तुमने कितने स्थान पर पलटा पलटी करी है तो क्या मुजे आप एसा ही समझ लिया नही ? नही ? कबी नही ? म्है आप कि माफीक नही हू मैंने तो जो लेलीया वह ही लेलीया चाहे कम मूल्य हो चाहे ज्यादामूल्य हो म्हेतो अब लीया हुवा कबी छोड़ने वाला नहीं है। वस सब लोक अपने अपने घर पर आये रत्नोंवालेतो एकाद रत्नकों वेचके बड़े भारी प्रसादके अन्दर अनेक प्रकारके मुखोंको विलसने लग गये और यह लोहा वाणीया दालीद्री ही रेह गये अब दुसरोंका मुख देखके बहुत पश्चाताप झुरापा करने लगा परन्तु अब क्या होता है । हे राजन् तु भी लोहावाणीवाका साथी हो रहा है परन्तु याद रखीये फीर लोहावाणीयाकी ससफीक तेरेकों मी पश्चातापन करना पडे इसको ठीक विचारलेना ? . प्रदेशी राजा बोला कि हे भगवान् आपके जैसे महान पुरुषोंका समागम होनेपर कीसी जीवोंकों पश्चातप करनेका भावकाश ही नहीं रेहेता है तो मेरे पर तो आपने