Book Title: Shighra Bodh Part 11 To 15
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala

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Page 415
________________ . (उ०) हे केशीश्रमण-इन्ही घौर संसारके अन्दर रहे हुवे मज्ञानी जीवोंके हृदयमें तृष्णारूपी विषवेल्लि है वहवेल्लि भवभ्रमणरूपी विष्मय फल देनेवाली है परन्तु म्है संतोषरूपी वीक्षण धारावाला कुदालासे जडा मूलसे नष्ट करके जैन शासनके न्याय माफीक निर्भय होके विचरता है। (६) प्रश्न-हे गौतम-इस रौद्र संसारके अन्दर प्राणीयोंके हृदय और रामरोमके अन्दर भयंकर जाज्वलामान अग्नि प्रज्वलीत होती हुई प्राणीयोंकों मूलसे जला देनी है, तो हे गौतम आप इस ज्वलत अग्निकों शान्त करते हुवे कैसे विचरते है। ___ (उ०) हे भगवान् ! यह कोपित अग्नि पर है महामेष धाराके जलको छांटके बीलकुल शान्त करके उन्ही अग्निसे निर्भय विचरता हु। (प्र०) हे गौतम आपके कोनसी अग्नि और कोनसा जल है ? (उ०) हे भगवान्–कषायरूपी अनि मज्ञानी प्राणीयोंको जला रही है परन्तु तीर्थकररूपी महामेधके अन्दरसे सदागम रूपी मूशलधारा जलसे सिंचन करके बीलकुल शान्त करते हुवे है निर्भय विचरता हु। ... (७) प्रश्न-हे गौतम-एक महा भयंकर रौद्र दुष्ट दिशाविदशामें उन्मार्ग चलनेवाला अश्व जगतके प्राणीयोंकों स्वइच्छीत स्थानपर ले जाते है तो हे गौतम आप भी ऐसे अपरारूढ होने पर भी आपको उन्मार्ग नही ले जाते हुवा भी तुमारी मरजी माफीक अश्व चलता है इसका क्या कारण है ? . . . . A (उ०) हे भगवान् ! उन्ही अश्वका स्वभाव तो रौद्ध भयंकार और दुष्ट ही है और अज्ञान प्राणीयोको उन्मार्गमें लेनाके बड़ा

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